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________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका कल्पस्त्रीयरोळ तीर्थबंधमिल्लदुकारणमागि तबंधरहित भवनत्रयदेवक्कळ रचनेयोळे कल्पस्त्रीयरुं पेळल्पदृरेकेंदोडे मिथ्यादृष्ट्यादिगुणस्थानंगळोळ बंधव्युच्छित्तिबंधाबंधप्रकृतिगळ सदृशंगळप्पुदे कारणमागि पृथक् पेळल्पटुदिल्ल। ___सानत्कुमार माहेंद्रब्रह्मब्रह्मोत्तर लांतव कापिष्ट शुक्रमहाशुक्रशतारसहस्रारमुमेंब १० कल्पंगळोळु देवळगे बंधयोग्यप्रकृतिगळ १०१ अप्पुवेदोडे तत्कल्पजरुगळेकेंद्रियजातिनाममुं ५ स्थावरनाममुं आतपमुमं सूक्ष्मंत्रयविकलत्रय नरकद्विक नारकायुष्यमुमेंबी मिथ्यादृष्टिय उपरितन द्वादशप्रकृतिगळं १२ सुरचतुष्कर्मु ४ सुरायुष्यममाहारकद्वय मुमितु १९ प्रकृतिगळं कटुवरल्तेकें. दोडे "आईसाणोत्ति सतवामछिदी" एंदितु सौधर्मेशानकल्पद्वयावसानमाद भवनत्रयदेवक्कळमेकेंद्रियस्थावरातपंगळं कटुवरप्पुरिदमवरोळ्या प्रकृतित्रयक्के बंधमुळिव सानत्कुमारादि दशकल्पजरुगळ्गे "णिरयेव होदि देवे" एंबी सूत्राभिप्रायदिदं । णारयमिच्छम्मि चारि बोच्छिण्णा। १० उवरिम बारस सुरचउ सुराउ आहारयमबंधा ॥ एंबु बंधप्रकृतिगळ १२० रोळ १९ प्रकृतिगळ कळेदोडे सानत्कुमारादि वशकल्पजरुगळगे बंधयोग्यप्रकृतिगळनितेयप्पुवप्पुरिवं । अल्लि मिथ्यादृष्टयाविचतुर्गुणस्थानंगळोळु बंधव्युच्छित्तिबंधाबंधप्रकृतिगळ्गे संदृष्टि : सानत्कुमारावि १० कल्पन | अ । १० । ७२ | २९ मि । ०। ७० सा २५९६ | मि | ४ १०० । इल्लि मिथ्यादृष्टियोळ मिथ्यात्व हुंड षंढ असंप्राप्त मेंब नाल्कुं प्रकृतिगळ ४ बंधव्युच्छित्तिगळप्पवु । बंधप्रकृतिगळु १०० अप्पुव बंधप्रकृति तीर्थमो देयकुं। सासादनसम्यग्दृष्टियोळु बंधव्युच्छित्तिगळु २५ बंधप्रकृतिगळु ९६ अबंधप्रकृतिगळ ५। कल्पस्त्रीषु तीर्थकरत्वं न बध्नातीति ततः कारणात् तद्रचना भवनत्रयरचनायामेवोक्ता उभयत्र गुणस्थानेषु बन्धाबन्धव्युच्छित्तिभिर्विशेषाभावात् । सानत्कुमारादिदशकल्पेषु नरकगतिवदिति बन्धयोग्यमेकोत्तरशतम् । मिथ्यादृष्टी व्युच्छित्तिश्चत्वारि सप्तानां तु ईशानपर्यन्तमेवोक्तत्वात् । बन्धः १०० । अबन्धः तीर्थकरत्वं । सासादने व्युच्छित्तिः २५ । बन्धः ९६ । अबन्धः ५ । मिश्रे व्युच्छित्तिः शून्यम् । बन्धः ७० । मनुष्यायुषोऽ- २० __ कल्पस्त्रियोंमें तीर्थकरका बन्ध नहीं होता। अतः उनकी रचना भवनत्रिककी रचनामें ही कही गयी। दोनोंके गुणस्थानोंमें बन्ध, अबन्ध, बन्ध व्युच्छित्तिमें अन्तर नहीं है। सानत्कुमार आदि दस कल्पोंमें नरकगतिके समान बन्धयोग्य एक सौ एक हैं । मिथ्यादृष्टिमें व्युच्छित्ति,चार, क्योंकि सातकी व्युच्छित्ति तो ईशान्तपर्यन्त ही कही है। बन्ध सौ, अबन्ध तीर्थकर एक । सासादनमें व्युच्छित्ति पञ्चीस, बन्ध छियानबे, अबन्ध पांच । मिश्रमें २५ व्युच्छित्ति शून्य, बन्ध सत्तर, क्योंकि मनुष्यायुका बन्ध नहीं होता। अबन्ध इकतीस । १. सूक्ष्म-अपर्याप्त-साधारणेति सूक्ष्मत्रयः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001325
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages698
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Karma, P000, & P040
File Size16 MB
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