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________________ m गो० कर्मकाण्डे अवणिदतिप्पयडीणं पमत्तविरदे उदीरणा होदि । स्थित्ति अजोगिजिणे उदीरणा उदयपयडीणं ॥२८॥ अपनीतत्रिप्रकृतीनां प्रमत्तविरते उदोरणा भवति । नास्तीत्ययोगिजिने उदीरणा उदय प्रकृतीनां ॥ ५ अयोगिकेवलिजिननोलदयप्रकृतिगगुदोरणेयिल्लप्पुरिदं सयोगायोगिकेवळिगळ मूवत्तं पन्नेरडुमुदयव्युच्छित्तियं कूडि नाल्वत्तरडरो सातासातप्रकृतिगळं मनुष्यायुष्यमुं कळेदु वप्पुदरिदमा कळंदु मूरुं प्रकृतिगछ प्रमत्तसंयतनोळु व्युच्छित्तिगळप्पुवु । अदु कारगमागि प्रमत्तसंयतनोळे टु प्रकृतिगळु व्युच्छित्तिगळप्पुवु। शेष मूवतो भत्तु प्रकृतिगळुदीरणे सयोगकेवलिभट्टारकगुणस्थानदोळक्कुं । ३९॥ अप्रमत्ताविगुणस्थानंगळोळामुळं प्रकृतिगळगुदीरणेयिल्लेकेंदोडे प्रमादरहितरप्पुरिद संक्लिष्टरोळल्लदा मूरुं प्रकृतिगळगुदीरणे घटिसदप्पुरिदमी विशिष्टशुद्धरोळु तदुदोरणगसंभवमप्पुरिदं ॥ अनंतरं मिथ्यादृष्टयादिगुणस्थानंगळो दीरणाव्युच्छित्तिप्रकृतिगळं पेन्दपरु : पण णव इगि सत्तरसं अट्ठट्ठ य चदुर छक्क छच्चेव । इगिदुग सोल्लगुदालं उदीरणा होंति जोगंता ॥२८१।। पंच नवैकसप्तदशाष्टाष्टौ च चतुः षट्कं षट्चैव । एक द्विकषोडशैकान्नचत्वारिंशदोरणा भवंति योग्यताः॥ मिथ्यावृष्टिगुणस्थानमादियागि सयोगकेवलिभट्टारकगुणस्थानमवसानमादत्रयोदशगुणस्थानंगळोळ यथाक्रमविंदमुदीरणा व्युच्छित्तिप्रकृतिगळ पंच नव एक सप्तदश अष्ट अष्ट चतुः षट्क २० षट् च एक द्विक षोडश एकान्नचत्वारिंशत् प्रकृतिगळप्पुवंतागुत्तं विरलुदोरणाप्रकृतिगळुमनु. अयोगिजिने उदयप्रकृतीनां उदोरणा नास्ति इति तदपनीतप्रकृतित्रयस्य प्रमत्तसंयते व्युच्छित्तिर्भवति ततः कारणात् प्रमत्तेऽष्टौ व्युच्छिद्यते । शेषैकोनचत्वारिंशदुदीरणा सयोगे एव नाप्रमत्तादिषु तत्त्रयोदोरणास्ति अप्रमत्तादित्वात् । संक्लिष्टेभ्योऽन्यत्र तदसंभवाच्च ।। २८० ॥ अथोदीरणाव्युच्छित्तिमाह सयोगपर्यंतत्रयोदशगुणस्थानेषु यथाक्रम उदीरणाव्युच्छित्तिः पंचनवकसप्तदशाष्टाष्ट चतुःषट्कषट्कैक२५ अयोग केवलीमें उदय प्रकृतियोंकी उदीरणा नहीं होती। इसलिए घटायी हुई तीन प्रकृतियोंकी उदीरणा व्युच्छित्ति प्रमत्तसंयतमें होती है। अतः प्रमत्तसंयतमें आठकी उदीरणा व्युच्छित्ति होती है । बयालीसमें से तीन घटानेपर शेष रही उनतालीस प्रकृतियोंकी उदीरणा व्युच्छित्ति सयोगकेवलीमें ही होती है। उन तीनकी उदीरणा अप्रमत्त आदि गुणस्यानोंमें नहीं होती, क्योंकि वे अप्रमत्तादि रूप हैं। इनकी उदीरणा संक्लेश परिणामोंसे होती है, ३. संक्लेश परिणामोंके बिना इनकी उदीरणा नहीं होती ॥२८॥ आगे उदीरणा व्युच्छित्ति कहते हैंमिध्यादृष्टिसे लेकर सयोगी पर्यन्त तेरह गुणस्थानोंमें क्रमसे उदीरणा व्युच्छित्ति पाँच, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001325
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages698
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Karma, P000, & P040
File Size16 MB
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