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________________ १६८ गो० कर्मकाण्डे विकल्पंगळं नडेदु बादरैकेंद्रियपर्याप्तजघन्यस्थितिबंधविकल्पं पुट्ठिदुर्देदितु पय॑नुयोगमागुत्तं चतुःसंख्यातभक्तावल्यधिकपञ्चविंशतिगुणितसंख्यातावलिमात्री २ जघन्या च तदाधिक्योनतन्मात्री २. १२५ २१ २५ तथानीतसमयोत्तराबाधाविकल्पा एतावन्तः २ एतानेव उक्तत्रराशिकानां स्थितिबन्धविकल्पा नपहाय फलराशीन् कृत्वा तत्तल्लब्धं स्वस्वस्थितिविकल्पानामधः संस्थाप्य तच्चतुर्विकल्पाबाधायामानां प्रथमे रूपोनलब्धमात्रान् परेषु संपूर्णतत्तल्लब्धमात्रानेव समयानपनीयापनीय तं तमाबाधायाम साधयेत्, एवमेव त्रीन्द्रियस्य मिथ्यात्वस्थितिः उत्कृष्टा पञ्चाशत्सागरोपममात्री सा ५० जघन्या च विसंख्यातभक्तरूपोनपल्योनतदुत्कृष्टमात्री सा ५० तथानीतसमयोत्तरतत्स्थितिविकल्पानिमान् प तन्मिथ्यात्वाबाधा उत्कृष्टा प त्रिसंख्यातभक्तावल्यधिकपञ्चाशद्गणितसंख्यातावलिमात्री २ जघन्या च तदाधिक्योनतन्मात्री २ १५० २१५० पुनः चतुरिन्द्रियस्य मिथ्यात्वस्थितिरुत्कृष्टा शतसागरोपम तथानीतसमयोत्तराबाधाविकल्पानिमान आबाधाके जितने भेद हैं उतनी जानना । फलसे इच्छाको गुणा करके प्रमाणसे भाग देनेपर १० जो-जो प्रमाण आवे उतने आबाधाके भेदोंका प्रमाण जानना। सो प्रथम त्रैराशिकमें तो जितना भेदोंका प्रमाण हो उसमें एक घटानेपर जो रहे उतने समय दो-इन्द्रिय पर्याप्तककी उत्कृष्ट स्थिति सम्बन्धी उत्कृष्ट आबाधामें-से घटानेपर जो प्रमाग रहे उतना दो-इन्द्रिय अपर्याप्तकके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका आबाधाकाल होता है। इसमें-से दूसरे त्रैराशिको जितने भेद आयें उतने समय घटानेपर दो-इन्द्रिय अपर्याप्तककी जघन्य स्थिति सम्बन्धी आवाधाका १५ काल होता है। इसमें-से तीसरे राशिकमें जितने भेद आयें उतने समय घटानेपर दो-इन्द्रिय पर्याप्तककी जघन्य स्थितिबन्ध सम्बन्धी आवाधाकालका प्रमाण होता है । दो-इन्द्रियके समान ही त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असंज्ञी पञ्चेन्द्रियका कथन जानना। इतना विशेष है कि यहाँ स्थिति और आबाधाका प्रमाण भिन्न-भिन्न है अतः फलराशि भिन्न है। आगे उसका कथन करते हैं त्रीन्द्रियके मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थिति पचास सागर है । जघन्य स्थिति उत्कृष्ट स्थिति मेंसे तीन बार संख्यातसे भाजित एक कम पल्यको घटानेपर जो शेष रहे उतनी है। उत्कृष्टस्थितिमें-से जघन्यको घटाकर उसमें एकसे भाग देनेपर जो प्रमाण रहे उसमें एक जोड़नेपर त्रीन्द्रियके मिथ्यात्वकी स्थितिके सब भेदोंका प्रमाण तीन बार संख्यातसे भाजित पल्यप्रमाण होता है । यही त्रीन्द्रियके स्थितिबन्धका कथन करनेमें तीनों त्रैराशिकोंमें फलराशि है । तथा २५ त्रीन्द्रियके उत्कृष्ट मिथ्यात्व स्थितिकी आबाधा तीन बार संख्यातसे भाजित आवली अधिक संख्यात आवली प्रमाण अन्तमुहूर्त पचास है । और जघन्य आबाधा केवल पचास अन्तर्मुहूर्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001325
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages698
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Karma, P000, & P040
File Size16 MB
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