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________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका २४३ कषायत्रयदोळु होनक्रम देयमकुं। मानबंधोपरतानिवृत्तिकरणचतुर्त्यभागदोळु संज्वलनकषायद्वय. दो होनक्रमं देयमकुं। मायाबंधोपरतानिवृत्तिपंचमभागदोळ संज्वलनदेशघातिप्रतिबद्धद्रव्यमनितुं लोभसंज्वलनकषायदोळे यक्कुं॥ अनंतरं सबंधनोकषायंगळ्गे निरंतरबंधाद्धा प्रमाणमं पेन्दपरु : पुंबंधद्धा अंतोमुहुत्त इथिम्मि हस्सजुगले य । __ अरदिजुगे संखगुणा णउंसगद्धा विसेसहिया ॥२०५॥ पुंबंधाद्धःऽन्तर्मुहर्त स्त्रियां हास्ययुगळे च अरतिद्विके संख्यगुणा नपुंसकाद्धा विशेषाधिका ॥ पुंवेदक्के निरंतरबंद्धाद्धे जिनदृष्टान्तर्मुहूत्तमिदु । २३ । २। संख्यातगुणितसंख्यातावलि. प्रमितमक्कुं। स्त्रियां स्त्रीवेदक्के निरंतरबंधाद्धेयदं नोडलु संख्यातगुणितमक्कु। २१ । ४ मिदं १० नोडलु हास्ययुगले च हास्यरतिगळ्गे निरंतरबंधाद्धे संख्यातगुणितमक्कु । २१ । १६ । मिवं नोडलु अरतितिके अरतिशोकंगळ निरंतरबंधाद्धे संखगुणा संख्यातगुणितमकुं । २१ । ३२ । नपुंसकाद्धा नपुंसकवेदनिरंतरबंधाद्धयरतिद्विकाद्धेयं नोडलु विषाधिका विशेषाधिकमक्कुं। २१ । ४२। इल्लि वेदत्रयालाकेगळं कूडिवोडे अन्तम्मुंहतंशलाकगळु नाल्वत्ते टप्पुवु। २१। ४८ । हास्यद्विकारतिद्विकान्तर्मुहूर्तशलाकेगळं कूडिदोडेयुं तावन्मात्रंगळप्पुवु । २१ । ४८॥ १५ मिथ्यादृष्टयाद्यनिवृत्तिकरणक्रोधबन्धभागपर्यंत सहबन्धसंज्वलनचतुष्टये क्रोधबन्धोपरतानिवृत्तितृतीयभागे सहबन्धसंज्वलनत्रये मानबन्धोपरतानिवृत्तिकरणचतुर्थभागे संज्वलनद्वये च होनक्रमेण देयम् । मायाबन्धोपरतानिवृत्तिपञ्चमभागे संज्वलनदेशघातिप्रतिबद्धद्रव्यं सर्व लोभसंज्वलन एव देयम् ॥२०४॥ अथ सबन्धनोकषायाणां निरन्तरं बन्धाद्धां प्रमाणयति पुंवेदस्य निरन्तरबन्धादा जिनदृष्टान्तर्मुहुर्तः २१ । २ स च 'संख्यातावलिमात्रः । स्त्रीवेदे ततः २० संख्यातगुणः २११४ अतो हास्यरत्योः संख्यातगुणः २१।१६ अतः अरतिशोकयोः संख्यातगुणः २१ । ३२ । ततः नपुंसकवेदे विशेषाधिकः २१। ४२ । अत्र वेदत्रयस्य मिलित्वा अंतर्मुहूर्तशलाकाः अष्टचत्वारिंशत् मिथ्यादृष्टिसे लेकर अनिवृत्तिकरणके दूसरे भाग पर्यन्त चारोंमें बँटवारा करना चाहिए। तीसरे भागमें जहाँ क्रोधका बन्ध नहीं होता वहाँ तीनमें ही बँटवारा करना । चौथे भागमें जहाँ मानका भी बन्ध नहीं होता, दोमें ही बँटवारा करना। पाँचवें भागमें जहाँ मायाका २५ भी बन्ध नहीं होता वहाँ संज्वलनका सब देशघाती द्रव्य एक लोभको ही देना ।।२०४|| आगे बन्धको प्राप्त नोकषायोंके निरन्तर बन्ध होनेका काल कहते हैं- . पुरुषवेदका निरन्तर बन्धकाल, जैसा जिनदेवने देखा तदनुसार अन्तर्मुहूते प्रमाण है । वह संख्यात आवली प्रमाण है। उसकी सहनानी (चिह्न) दो गुणा अन्तर्मुहूर्त है। स्त्रीवेदका निरन्तर बन्धकाल उससे संख्यात गुणा है। उसकी सहनानी चार गुणा अन्तमुहूर्त ३० है। हास्य और रतिका उससे भी संख्यातगुणा है। उसकी सहनानी सोलह गुणा अन्तर्मुहूर्त है। अरति और शोकका उससे भी संख्यातगुणा है। उसकी सहनानी बत्तीसगुणा अन्तर्मुहूर्त १. ब संख्यातगुणितसंख्यातावलि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001325
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages698
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Karma, P000, & P040
File Size16 MB
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