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________________ कर्णाटवृत्ति जोवतत्वप्रदीपिका देहादीफस्संता थिरसुहसरसुरविहायदुगदुभगं । णिमिणं जसणादेज्ज पत्तेयापुण्ण अगुरुचऊ ॥३४०॥ अणुदयतदियं णोचमजोगिदुचरिमम्मि सत्तवोच्छिण्णा । उदयगवार गराणू तेरस चरिमम्मि वोच्छिण्णा ॥३४१॥ देहाविस्पर्शाताः स्थिरशुभस्वरसुरविहायोगतिद्विक दुर्भगं निर्माणायशस्कोर्त्यनादेयं ५ प्रत्येकापूर्ण अशुरुचतस्त्रः॥ अनुदयतृतीयं नीचप्रयोगिद्विचरमे सत्त्वव्युच्छितघः। उदयगतद्वादशनरानुपूव्यं त्रयोदश चरमे व्युच्छिन्नाः ॥ देहादिस्पर्शाताः शरीरपंचक, ५ बंधनयंबकमुं ५ संघातपंचकमुं ५ संस्थानषटकमुं६। अंगोपांगत्रितयमुं ३। संहननषद्कम ६। वर्ण,पंचक५। गंधद्विकमु२। रसपंचकमु५। १० स्पर्शाष्टकमु ८। स्थिरद्विक, २। शुभद्विकमु२। स्वरद्वकमु२। सुरद्विकमु२। विहायोगतिद्विक २। दुर्भगनाम, १ । निर्माणनाममु१ अयशस्कोत्तियुं अनादेयमु१ प्रत्येकशरीरम १ अपर्याप्तनाम, १ अगुरुलघूपघातपरवातोच्छ्वासचतुष्क, ४ । अनुदयवेदनीय, १ नोचैग्र्गोत्रमु १ मितप्पत्तर९ प्रकृतिगळयोगिद्विचरमसमयसत्वव्युच्छित्तिगळप्पुवु। चरमसमयवसत्वव्युच्छित्तिप्रकृतिगळु ताणस्थानदोयिसुत्तिई 'तृतीयकादि द्वादश प्रकृतिगछु मनुष्यानुपूर्व्यमुर्मितु १५ पदिमूरुं प्रकृतिगळप्पुवु । अंतागुत्तं विरलनिवृत्तिकरणन प्रथमभागदोळ असत्वंगळु पत्तु १०। सत्वप्रकृतिगळ नूर मूवत्तें टु १३८ । आद्वितीयस्थानदोळ पदिनारुगूडियसत्वप्रकृतिगळ शून्यं ॥ ३३९॥ पंचशरीरपंचबंधनपंचसंघातषट्संस्थानभ्यंगोपांगषट्संहननपंचवर्णद्विगंधपंचरसाष्टस्पर्शाः स्थिरशुभसूस्वरसुरविहायोगतिद्विकानि दुर्भगं निर्माणमयशस्कोतिरनादेयं प्रत्येकमपर्याप्तमगुरुलधूपघातपरघातोच्छ्वासा २० अनुदयवेदनोयं नीचर्गोत्रं चेति द्वासप्ततिरयोगिद्विचरमसमये सत्त्वव्युच्छित्तिः। घरमसमये उदयगततृतीयफादिद्वादश; मनुष्यानुपूज्यं चेति वयोदश । एवं सत्यनिवृत्तिकरणप्रथमभागे असत्त्वं दश सत्वमष्टात्रिंशदुत्तरशतं, उदय व्युक्छित्तिकी तरह पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, पाँच अन्तराय, निद्रा और प्रचला इन सोलहकी सत्त्व व्युच्छित्ति है । सयोगीमें सत्त्व व्युच्छित्ति नहीं है ॥३३९।। पाँच शरीर, पाँच बन्धन, पाँच संघात, छह संस्थान, तीन अंगोपांग, छह संहनन, २५ पाँच वर्ण, दो गन्ध, पाँच रस, आठ स्पर्श, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुस्वर, दुःस्वर, देगति, देवानुपूर्वी, प्रशस्त, अप्रशस्त विहायोगति, दुभंग, निर्माण, अयशस्कीर्ति, अनादेय, प्रत्येक, अपर्याप्त, अगुरुलघु, उपवात, परघात, उच्छ्वास, जिसका उदय न हो वह एक वेदनीय और नीच गोत्र इन बहत्तरकी अयोगके वलीके द्विचरम समयमें सत्त्व व्युच्छित्ति होती है । अन्तिम समयमें जिनका उदय अयोगीमें होता है वह कोई एक वेदनीय, मनुष्य- १० १. तदियेक मणु गदि बिदिय सुभग तसतिग देज्ज । जसतित्थं मणुमा उच्च न्न अजोगिचरिमाम्ह ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001325
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages698
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Karma, P000, & P040
File Size16 MB
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