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________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका १३९ मिथ्यात्वप्रकृति गुत्कृष्टस्थितिबंधमं पंचाशत्सागरोपममं मावु । चतुरद्रियजीवंगळुमा मिथ्यात्वप्रकृतिगुत्कृष्टस्थितिबंधमं शतसागरोपमंगळं माळवु । असंज्ञिपंचेंद्रियजीवंगळमा मिथ्यात्वप्रकृतिगे उत्कृष्टस्थितिबंधमं सहस्रसागरोपमंगळं माळवु । संज्ञिपंचेंद्रियपर्य्याप्तजीबंगळु सप्ततिकोटोकोटिसागरोपमंगळनुत्कृष्टस्थितिबंधमं मिथ्यात्वप्रकृतिगे माळवरती एक विकलेंद्रियजीवंगot मिथ्यात्वप्रकृतिगे जघन्यस्थितिबंधमं क्रमदिनेकेंद्रियजीवंगळ पल्या संख्येय भागोनमुं हींद्रियादि ५ जीवंगळ मिथ्यात्व प्रकृतिगे जघन्यस्थितिबंधमं पल्यासंख्येयभागोनक्रर्मादिदं माळपद : एक उ सा १ ज सा १२ द्वींद्रि सा २५ त्रीं सा ५० सा २५२ | सा ५०२ - प १ ७४ प ७ । ३ असं चतु सा १०० सा १००० सा १००२ सा १०००२ ܘ Jain Education International प - 1 ७।२ प - 1 ७ तदनंतरं मुंपेदुत्कृष्ट स्थितिबंधमं संज्ञिपर्य्याप्त कमिथ्यादृष्टि माळपने कु पेळरपुवरिनोगळेकेंद्रियादिजीवंगळगुत्कृष्टस्थितिबंधमुमं जघन्यस्थितिबंधमुमं पेव्वल्लि त्रैराशिक विधानविवं oad बोर्ड संज्ञि सा ७० को २ सा अन्तः को २ | जदि सत्तरिस्स एत्तियमेतं किं होदि तीसियादीणं । हृदि संपादे सेसाणं इगिविगलेसु उभयठिदी || १४५॥ यदि सप्ततेरेतावन्मात्रं किं भवति शत्कादीनां । इति संपाते शेषाणामेक विकलेषु भयस्थितिः ॥ पञ्चाशत्सागरोपमाणि चतुरिन्द्रियाः शतसागरोपमाणि, असंज्ञिनः सहस्रसागरोपमाणि, संज्ञिनः पर्याप्ता एव सप्ततिकोटी कोटिसागरोपमाणि । तज्जघन्यस्तु एकेन्द्रियद्वोन्द्रियादीनां स्वस्वोत्कृष्टात्पत्यासंख्येयभागोनक्रमो १५ भवति ॥ १४४ ॥ तत्संयुत्कृष्टेन एकेन्द्रियादीनामुत्कृष्टजघन्यावाह 1 पच्चीस सागर प्रमाण बाँधते हैं । त्रीन्द्रिय पचास सागर प्रमाण बाँधते हैं। चौइन्द्रिय सौ सागर प्रमाण बाँधते हैं । असंज्ञी पवेन्द्रिय एक हजार सागर प्रमाण बाँधते हैं। संज्ञीपर्याप्त ही सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण बाँधते हैं। तथा मिध्यात्वकी जघन्य स्थिति एकेन्द्रिय अपनी उत्कृष्ट स्थितिसे पल्यके असंख्यातवें भाग कम बाँधता है । और शेष द्वीन्द्रिय आदि अपनी-अपनी उत्कृष्ट स्थिति से पल्य के संख्यातवें भाग हीन बांधते हैं ॥ १४४ ॥ आगे संज्ञी पचेन्द्रियके उत्कृष्ट स्थितिबन्धकी अपेक्षा एकेन्द्रियादिके उत्कृष्ट और जघन्य स्थितिबन्धका प्रमाण कहते हैं १० For Private & Personal Use Only १. ई रचनेयोलु जघन्यस्थितियोलिदे रूपन्यूनते मंदे "जे बाहोवट्टिय" एंब गाथाव्याख्यानदोलु व्यक्तमादपुदुउक्कस्सट्ठिदीबंधो सणि पज्जत्तगे जोग्गे इति गाथांतेन । सब्बुक्कस्सठिदीणं मिच्छाइट्ठी बंघको भणिदो । २५ इति गाथांशेन प्रागुक्तत्वात् । २० www.jainelibrary.org
SR No.001325
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages698
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Karma, P000, & P040
File Size16 MB
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