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कारवृति जविस दादा का
३८९ iiiप्रियच्यांतजीवजघन्ययोगस्थानं मोदलागि संजिपर्याप्तोत्कृष्टयोगस्थानपय्यंतमबात द्धिपि नत्र योगस्थानंगळ क्रमसंगाथापंचकदिदं पेन्दपरु :
बीइंदियपज्जत्तजहण्णढाणा दु सणिपुण्णस्स ।
उक्कस्सट्टाणोत्ति य जोगट्ठाणा कमे उड्दा ।।२५१॥ प्रों द्रियपप्तिजघन्यस्थानात्संक्षिपूर्णस्योत्कृष्टस्थानपय्यंतं च योगस्थानानि क्रमेण वृद्धानि ॥ ५
द्रयपर्याप्तजीव जघन्यपरिणामयोगस्थानमादियागि संज्ञिपर्याप्तजीवोत्कृष्टपरिणामयोगस्थानपर्यतं परिणामयोगस्थानंगळं अवस्थितवृद्धिक्रमदिदमे पेल्पटुवु । अन्तु पेल्पट्ट स्थानंगलोजः
सेढियसंखेज्जदिमा तस्स जहण्णस्स फड्ढया होति ।
अंगुलअसंखभागा ठाणं पडि फड्ढया उड्ढा ॥२५२।। श्रेण्य संख्याकभानप्रमितानि तस्य जघन्यस्य स्पर्द्धकानि भवति । अंगुलासंख्यभागप्रमितानि स्थानं प्रति स्पद्धंकानि वृद्धानि ॥
तस्य द्वींद्रियपर्याप्त जीवजघन्यपरिणामयोगस्थानक्के स्पर्द्धकंगळुश्रेण्यसंख्यातेकभागमात्रंगळप्पुवु । ववि। १६ । ४।। तज्जघन्यस्थानानंतरस्थानविकल्पं मोदल्गोंडु स्थानं प्रति सूच्यंगुलासंख्यातेकभागमात्रजघन्यस्पर्द्धकंगळ पेल्पटुवंतु पेल्प? :
तत्र छेदारीख्यातगुणः इतीम क्रमं गाथापंचकेनाह
दींद्रियपर्याप्तजीवपरिणामयोगजघन्यस्थानात् संज्ञिपर्याप्ततदुत्कृष्टस्थानपर्यंतं परिणामयोगस्थानानि अवस्थित वृद्धिक्रमेण वृद्धानि संति ॥२५१॥
तेषु द्वोद्रियपर्याप्तजघन्यपरिणामयोगस्यानं श्रेण्यसंख्येयभागमात्रस्पर्धकं । व वि १६ ४ - । तदनंतर
शिलामादि कृत्वा प्रतिस्थानं सूच्चंगुलासंख्यातेकभागमात्रजघन्यस्पर्धकानि वर्धन्ते ॥२५२॥ जघन्य योगस्थानसे पल्यके अर्धच्छेदोंके असंख्यातवाँ भाग गुणा होता है। तो उससे जो समयप्रबद्ध बँधता है वह जघन्य समयप्रबद्धसे पल्यके अर्धच्छेदोंके असंख्यातवें भाग गुणा होता है ॥२५०॥
आगे उक्त कथनको पाँच गाथाओं से कहते हैं
दो-इन्द्रिय पर्याप्तकके जघन्य परिणाम योगस्थानसे लेकर संज्ञीपर्याप्तकके उत्कृष्ट २५ परिणाम योगस्थान पर्यन्त परिणाम योगस्थान क्रमसे समान वृद्धिको लिये हुए बढ़ते हैं ॥२५॥
उनमें से दो-इन्द्रिय पर्याप्तकके जघन्य परिणाम योगस्थानके स्पर्धक जगतश्रेणिके असंख्यातवें भागमात्र होते हैं । उसके अनन्तरवर्ती स्थानसे लेकर प्रत्येक स्थानमें सूच्यंगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण जघन्य स्पर्धक बढ़ते हैं। अर्थात् जघन्य स्पर्धकके जितने अविभाग ३० प्रतिच्छेद हैं उन्हें सूच्यंगुलके असंख्यात भागसे गुणा करनेपर जो प्रमाण हो उतने-उतने अविभाग प्रतिच्छेद एक-एक योगस्थानमें बढ़ते हैं ।।२५२।।
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