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________________ ३८८ गो० कर्मकाण्डे इगिठाणफड्ढयाओ समयपबद्धं च जोगवडढी च । समयपबद्धचय8 एदे हु पमाणफल इच्छा ॥२५०।। एकस्थानस्पटुकानि समयप्रबद्धश्च योगवृद्धिश्च । समयप्रबद्धचयात्थमेताः खलु प्रमाण५ फलेच्छाः ॥ जघन्ययोगस्थानस्पर्द्धकंगळ समयप्रबद्धमुं योगवृद्धियुं समयप्रबद्धचयनिमित्तमागिक्रमदिवं प्रमाणफलेच्छाराशिगळप्पुवु प्र व वि १६ । ४ - फस | इ व वि १६।४।२ | अन्तागुतं विरलु लब्धं समयप्रबद्धवृद्धिप्रमाणमिनितक्कु स २ मिनितु वृद्धि निरंतरक्रम दिदमागुत्तं पोगियों दो डेयोळु जघन्यसमयप्रबद्धं द्विगुणमुं चतुर्गुणमष्टगुणमी क्रमविदं द्विगुणद्विगुणमागुत्तं पोगि पोगि चरमदोळ पल्यच्छेवासंख्यातेकभागगुणितमक्कुमेल्लि योगस्थानं द्विगुणमक्कुमल्लि समयप्रबद्धमुं द्विगुणमक्कुमेल्लि योगस्थानं चतुर्गुणमक्कुमल्लि समयप्रबद्धं चतुर्गुणमक्कुमी क्रमदिदं पोगि चरमदोळु योगस्थानमुं छेवासंख्यातैकभागगुणितमादोडल्लि समयप्रबद्धमुं तावन्मात्रगुणितमेयक्कुमेंबुदत्यं ।। तवींद्रियपर्याप्तस्य जघन्यपरिणामयोगस्थानस्पर्धकानि समयप्रबद्धः योगवृद्धिश्चामी त्रयः समयप्रबद्धचयनिमित्तं क्रमेण प्रमाणफलेच्छाराशयो भवति । प्र-ववि १६ ४-।फ-स । इव वि १६४२ १५ इति लब्धसमयप्रबद्धवृद्धिप्रमाणेन स २ जघन्यसमयप्रबद्धो निरंतरं वधित्वा वधित्वा यत्र योगस्थानं द्विगुणं तत्र द्विगुणः, यत्र चतुर्गुणं तत्र चतुर्गुणः एवं गत्वा चरमे छेदासंख्यातगुणः ॥२५०।। आगे इन योगस्थानोंके धारी जीव कितना-कितना प्रदेशबन्ध करते हैं इस प्रश्नके समाधानके लिए समयप्रबद्धकी वृद्धिका प्रमाण कहते हैं . दो-इन्द्रिय पर्याप्तकके जघन्य परिणाम योगस्थान सम्बन्धी स्पर्धक, समयप्रबद्ध और योगोंकी वृद्धि ये तीन एक-एक योगस्थानमें समयप्रबद्धकी वृद्धिका प्रमाण लानेके लिए क्रमशः प्रमाण, फल और इच्छाराशिरूप होते हैं। जघन्य परिणाम योगस्थानमें श्रेणीके असंख्यातवें भाग प्रमाण जघन्य स्पर्धक पाये जाते हैं। यह प्रमाण राशि है। और इस जघन्य योगस्थानके द्वारा जो जघन्य समयप्रबद्ध प्रमाण प्रदेशोंका बन्ध होता है वह फलराशि हुई। और एक-एक योगस्थानमें सूच्यंगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण जघन्य स्पर्धक बढ़ते हैं यह इच्छाराशि हुई। सो फलसे इच्छाको गुणा करके प्रमाणराशिका भाग देनेपर को लब्धराशि आयी उतना-उतना अधिक प्रदेशोंको लिये हुए ऊपरके एक-एक योगस्थानमें समयप्रबद्ध बँधता है । अर्थात् जघन्य योगस्थानसे तो जघन्य समयप्रबद्ध बँधता है उसके अनन्तरवर्ती योगस्थानसे इतने अधिक प्रदेशों को लिये हुए समयप्रबद्ध बँधता है । इस तरह निरन्तर बढ़ते-बढ़ते जहाँ योगस्थान दूना होता है वहाँ समयप्रबद्ध भी दूना बंधता है। जहाँ वह चौगुना होता है ३० वहाँ समयप्रबद्ध भी चौगुना बँधता है। इस प्रधार संज्ञी पर्याप्तकका उत्कृष्ट योगस्थान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001325
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages698
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Karma, P000, & P040
File Size16 MB
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