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________________ ५०० गो० कर्मकाण्डे अनंतरं कार्मणकाययोगोदययोग्यप्रकृतिगळं गाथाद्वदिदं पेळदपक : ओघ कम्मे सरगदिपत्तेयाहारुरालदुग मिस्सं । उवघादपणविगुव्वदु थीणतिसंठाण-संहदी पत्थि ॥३१८॥ ओघः कार्मणे स्वरगतिप्रत्येकाहारौदारिक द्विकमिश्रं उपघातपंचवैक्रियिकद्विकस्त्यानगृद्धि५ त्रितयसंस्थानसंहननं नास्ति ॥ कार्मणे ओघः कार्मणकाययोगदोळु सामान्योदयप्रकृतिगळु नूरिप्पत्तेरडप्पुवयरोळ सुस्वर . दुस्वरद्विक, २। प्रशस्ताप्रशस्तविहायोगतिद्विकमुं २। प्रत्येकसाधारणशरीरद्विकमुं २ । आहारकाहारकांगोपांगद्विकमुं २। औदारिकौदारिकांगोपांगद्विकमुं२। मिश्रप्रकृतियु१। उपघातपरघाता तपोद्योतोच्छ्वासपंचकमुं५ वैक्रियिकशरोरतदंगोपांगद्विक, २ । स्त्यानगृद्धिनितयमुं ३ । संस्थान१० षटकमुं६। संहननषट्कमु ६ मितु मूवत्तमूरं प्रकृतिगळं ३३ कळेदोडे शेषप्रकृतिगळण्भतो भत्तु दययोग्यंगळप्पुवु ८९ वलि । अनादिसंसारदोळु विग्रहगतियोळमविग्रहगतियोळ मिथ्यादृष्टिगुणस्थानमादियागि सयोगकेवलिगुणस्थानमवसानमागि पदिमूरुं गुणस्थानंगळोळु कार्मणशरीरक्के निरंतरोदयमुंटागुत्तं विरलु विग्रहगतौ कर्मयोगः एंदितु सूत्रारंभमेके दो सिद्ध सत्यारंभो नियमाय एंदु विग्रहगतौ कर्मयोग एव नान्यो योगः एंदितीयवधारणमरियल्पडुगुमदु कारणमागि पूर्वभव१५ शरीरत्यादिदमुत्तरभवविग्रहग्रहणार्थमागि गतिविग्रहगतियप्पुरिंदमा विग्रहगतियोळ वत्तिसुवरु मिथ्यादृष्टि सासादनासंयतसम्यग्दृष्टिगळेब मूलं गुणस्थानतिगळागळे वेळकुमा विग्रहगतियोळु २० वंति । ५७ ॥३१७॥ अथ कार्मणयोगस्य गाथाद्वयेनाह ___ कार्माणयोगे उदयप्रकृतयः द्वाविंशत्युत्तरशते सुस्वरवरे प्रशस्ताप्रशस्तविहायोगती प्रत्येकसाधारणे आहारकतदंगोपांगे औदारिकतदंगोपांगे मिश्रप्रकृतिः उपधातपरघातातपोद्योतोच्छ्वासाः वैक्रियिकतदंगोपांगे स्त्यानगृद्धित्रयं संस्थानषट्कं संहननषट्कं च नेत्येकान्ननवतिः ८९ । ननु अनादिसंसारे विग्रहाविग्रहगत्योमिथ्यादृष्टयादिसयोगांतगुणस्थानेषु कार्मणस्य नितरोदये सति "विग्रहगतो कर्मयोगः' इति सूत्रारंभः कथं ? सिद्धे सत्यारभ्यमाणो विधिनियमायेति विग्रहगतो कर्मयोग एव आगे दो गाथाओंसे कार्मण काययोगमें कहते हैं कार्मण काययोगमें सामान्य उदययोग्य एक सौ बाईसमें-से सुस्वर, दुःस्वर, प्रशस्त १. और अप्रशस्त विहायोगति, प्रत्येक, साधारण, आहारक शरीर, आहारक अंगोपांग, औदारिक शरीर, औदारिक अंगोपांग, मिश्रप्रकृति, उपघात, परघात, आतप, उद्योत, उच्छ्वास, वैक्रियिक शरीर, वैक्रियिक अंगोपांग, स्त्यानगृद्धि आदि तीन, संस्थान छह, संहनन छह इन तैतीसका उदय न होनेसे उदययोग्य लवासी ८९ ।। शंका-अनादि संसारमें विग्रहगति हो या अविग्रह गति हो उनमें मिथ्यादृष्टि आदि सयोगकेवली पर्यन्त सब गुणस्थानों में कार्मणका निरन्तर उदय रहता है। तब तत्त्वार्थ सूत्र३० में विग्रहगतिमें कर्मयोग होता है ऐसा कथन क्यों किया ? समाधान-'सिद्ध होते हुए भी जो विधि आरम्भ की जाती है वह नियमके लिए होती १. व सत्यारम्भो नि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001325
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages698
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Karma, P000, & P040
File Size16 MB
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