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________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ५३७ नरकतिर्यग्मनुष्यानुपूयंत्रयमुमाहारकद्विकमुमिल्लेके दोडे' प्रथमोपसम्यक्त्वदोळ प्राग्बद्धनरकतिर्यग्मनुष्यायुष्यरादोडं मरणमिल्लेके दोड: मिस्साहारस्सयाखवगा चडमाणपढमपुव्वा य । पढमुवसम्मा तमतमगुणपडिवण्णा य ण मरंति ॥ अणसंजोजिदमिच्छे मुहुत्त अंतोत्ति त्थि मरणं तु। कवकरणिज्जं जाव दु सवपरट्ठाण अठ्ठपदा ॥ निवृत्यपर्याप्रकरुं आहारकर्मिश्रकायरं क्षपकरुगळुमुपशमश्रेण्यारोहणप्रथमभागापूर्वकरणरुं प्रथमोपशमसम्यग्दृष्टिगळं सप्तमश्वियगुणप्रतिपन्नरुगळं न मरंति मरणमनेदरु । अनंतानुबंधियं विसंजोयिसि मिथ्यात्वमं पोद्दिदवग्गळ्गमंतर्मुहूतपय्यंत मरणमिल्ल । दर्शनमोहक्षपकंगे कृतकृत्यत्वमन्नेवर मन्नेवरं मरणमिल्ल। तु शब्ददिदं बद्धदेवायुष्यरुगळुपशमश्रेण्या- १० रोहणमं माडि मतमवतरणदोलुपशांतकषायगुणस्थानाद्यपूर्वकरणगुणस्थानावसानदोळ मरणमादोडे देवासंयतरप्पर० कारणदिवः प्रथमोपशमसम्यक्त्वदोळ नरकतिर्यगमनुष्यानुपूर्यो. पशमात् क्षायिकसम्यक्त्वे च क्षयात् सम्यत्वप्रकृतिन । पुनः उपशमसम्यक्त्वे नरकतिर्यग्मनुष्यानुपूयाहारकद्विकमपि न, प्राग्बद्धतदायुषामपि तत्रामरणात् ।। ३२८ ।। निर्वृत्यपर्याता आहारकमिश्रकायाः क्षपका उपशमश्रेण्यारोहकप्रथमभागापूर्वकरणाः प्रथमोपशम. १५ सम्यक्त्वाः सप्तमपृथ्वीगुणप्रतिपन्नाश्च न म्रियते । अनंतानुबंधिकषायान्विसंयोज्य मिथ्यात्वं प्राप्तस्यांतर्मुहूर्तपर्यतं दर्शनमोहक्षपके च कृतकृत्यत्वं यावत्तावन्मरणं नास्ति । तुशब्दाबद्धदेवायुष्का उपशमश्रेण्यवतरणेऽपूर्वकरणगुणस्थानावसाने नियंते तदा देवासंयता एव जायते ततो न प्रथमोपशमसम्यक्त्वे नरकतिर्यग्मनुष्यानुपूर्योहोनेसे और क्षायिक सम्यक्त्वमें क्षय होनेसे सम्यक्त्व प्रकृतिका उदय नहीं होता। पुनः उपशम सम्यक्त्वमें नरकानुपूर्वी, तिथंचानुपूर्वी, मनुष्यानुपूर्वी तथा आहारकद्विकका उदय २० नहीं होता, क्योंकि पूर्व में जिन्होंने इन आयुओंका बन्ध किया है उनका भी उपशम सम्यक्त्व. में मरण नहीं होता ॥३२८॥ वही कहते हैं नित्यपर्याप्त अवस्थावालोंका, आहारक मिश्रकायवालोंका, क्षपक श्रेणीवालोंका उपशमश्रेणिपर चढ़े हुए अपूर्वकरणके प्रथम भागवालोंका, प्रथमोपशम सम्यग्दृष्टियोंका, और २५ सातवें नरकमें ऊपरके गुणस्थानों में स्थित जीवोंका मरण नहीं होता। तथा अनन्तानुबन्धी कषायका विसंयोजन करके जो पीछे मिथ्यात्वमें आता है उसका एक अन्तर्मुहूर्त तक मरण नहीं होता। दर्शन मोहका क्षय करनेवालेके जबतक कृतकृत्य वेदक सम्यग्दृष्टिपना होता है तबतक मरण नहीं होता । 'तु' शब्दसे जिन्होंने पूर्व में देवायुका बन्ध किया है वे उपशम श्रेणी से उतरनेपर अपूर्वकरण गुणस्थान पर्यन्त मरते हैं तो मरकर असंयत सम्यग्दृष्टि देव ही होते ३० हैं। अतः प्रथमोपशम सम्यक्त्वमें नरकानुपूर्वी, तिथंचानुपूर्वी और मनुष्यानुपूर्वी का उदय १. द्वितीयोपशमसम्यक्त्वदोळु नरकतिय॑ग्मनुष्यानुपूर्व्यत्रयमिल्लदोडं प्रथमोपशमसम्यक्त्वदोळीयानुपूळ्य॑त्रयं षटिसर्द एंदोडे पेल्दपरु-कृतकृत्यवेदकस्य प्रथमांतर्मुहूर्त पय्यंत मरणं नास्ति । गुणस्थानच्युतिर्गतिच्युतिरित्युभयं । सन्वपरमट्ठाणं । २. द्वितीयोपशमसम्यक्त्वदोळे बुदु सुपाठं ॥ ३. व तं मरणं नास्तीति द । क-६८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001325
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages698
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Karma, P000, & P040
File Size16 MB
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