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________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका अनुविशानुत्तरविमानंगळ, १४ रोळ सम्यग्दृष्टिगळेयप्पुरिदमल्लिय असंयतरुगळ्गे बंधयोग्यप्रकृतिगळ ७२ अप्पविन्ती देवगतियोळ पेळ्व भवनत्रयजरुं कल्पजस्त्रीयरुगळप्प निवत्य पर्याप्तकरगळगे बंधयोग्यप्रकृतिमळ १०१। अप्पुर्वतेवोडे तत्पर्याप्त रुगळ्गे बंधयोग्यप्रकृतिगळ १०३ रोळ्गे मिश्रकापयोमिगळप्परिदं । तिय्पंग्मनुष्यायुयम कट्टरप्पुरिदमवं कळे बोडे तावन्मात्रप्रकृतिगठप्पुवप्पुरिदं । अल्लि मिथ्यादृष्टिसासादनगुणस्थानद्वितयमेयक्कुमेके वोडे ५ तिर्यग्मनुष्यगतिय सम्यग्दृष्टिगळल्लि पुटुवरल्लप्परिदं आ गुणस्थानद्वयवोळ बंधव्युच्छित्ति बंधाबंधप्रकृतिगळगे संवृष्टिः भ३ । कल्पजस्त्रीयर नित्यपर्याप्तर |सा २४ मि ७ १०१ ० ई रचने सुगममेकेंदोडे तोयंमुमायुष्यमुमिल्लि बंधमिल्लप्पुरिवं । सौधर्मेशानकल्पजनिर्वृत्यपर्याप्तकरुगळ्गे बंधयोग्यप्रकृतिगळु १०२ अप्पुतेंदोडिल्लियमेरडायुष्यंगळे कळेदुवु तीर्थमंटप्परिवं । गुणस्थानत्रितयमुमप्पुववक्के संदृष्टिः- सौधर्म २ द्वयनिवृत्यप.। १० | | ९ | ७१ | ३१ । मि ७ १०१ १ ई रचने सुगममेकेदोडे असंयतनोळ तीर्थबंध में बिनिते विशेषमप्परिदं । सानत्कुमारादि वशकल्पजनित्यपर्याप्तकरगळ्गे बंधयोग्यप्रकृतिगळ ९९ अप्पविल्लियुमायुद्धयरहितमप्पुरिदं संवृष्टिः -- सा कल्प निर्वत्थ अबन्धः २५ । अनुदिशानुत्तराः असंयतसम्यग्दृष्टय एव तेषां बन्धयोग्यप्रकृतयः ७२ । निर्वृत्त्यपर्याप्तानां तु भवनत्रयकल्पस्त्रीषु बन्धयोग्यं मिश्रयोगित्वात्तिर्यग्मनुध्यायुषी न इत्येकोत्तरशतम् १०१ । गुणस्थाने द्वे एव १५ असंयतानां तत्रोत्पत्यभावात् । तत्र मिथ्यादृष्टो व्युच्छित्यादित्रयं ७ । १०१ । ० । सासादने २४ । ९४ । ७ । सौधर्मशानयोर्बन्धयोग्यं तीर्थकृता सह द्वयुत्तरशतम् १०२ । तत्र मिथ्यादृष्टौ व्युच्छित्त्यादित्रयं ७ । १०१।१। बन्ध सत्तर, अबन्ध सत्ताईस । असंयतमें व्युच्छित्ति दस, वन्ध बहत्तर, अबन्ध पच्चीस । अनुदिश अनुत्तरवासी देव असंयत सम्यग्दृष्टी ही होते हैं। उनके बन्धयोग्य प्रकृतियाँ बहत्तर हैं । निर्वृत्यपर्याप्तकोंके भवनत्रय और कल्पस्त्रियोंमें बन्धयोग्य एक सौ एक हैं क्योंकि मिश्र- २० काययोग होनेसे तिर्यवायु मनुष्यायुका बन्ध नहीं होता । गुणस्थान दो ही हैं क्योंकि असंयत सम्यग्दृष्टि मरकर उनमें उत्पन्न नहीं होता मिथ्यादृष्टि में व्युच्छित्ति आदि तीन, सात, एकसौ एक और शून्य है। सासादनमें चौबीस, चौरानबे, सात है। सौधर्म ऐशानमें तीर्थंकरके बँधनेसे अन्धयोग्ग एक सौ दो हैं। उनमें मिथ्यादृष्टिमें व्युच्छिनि आदि तीन, सात, एक सौ एक है। सासादनमें चौबीस, चौरानबे, आठ। असंयतमें नौ, इकहत्तर, इकतीस । २५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001325
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages698
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Karma, P000, & P040
File Size16 MB
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