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________________ कर्णावृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका अर्ध्याहतात्पूज्यात् पूज्यमप्पुर्दारदं ज्ञानं पूर्व्वमक्कुं । हि तथा हि अहंगे लघुघ्यजाद्यदल्पाजमे कर्म दितु पूज्यपदक्के पूव्वं निपतनमुंटप्पुर्दारदं । ततः बळिकं । दर्शनं भवति दर्शनमक्कुं । अतः बुलिकं सम्यक्त्वं सम्यक्त्वमक्कुं । जीवाजीवगतमिति जीवदोळमजीवदोळमिक्कुमेदितु वीय्यं चरमदोपठिसल्पट्टुवु ॥ घादीवि अघादिं वा णिस्सेसं घादणे असक्कादो । णामतियनिमित्तादो विग्धं पढिदं अघादि चरिमम्मि ||१७|| घात्यप्यघातिवन्निःशेषं घातनेऽशक्यात् । नामत्रयनिमित्ताद्विघ्नं पठितमघातिचरमे ॥ घातिकमा दोडमं (रायकमघातिकर्मदते निःशेषमागि जीवगुणघातनदोळु शक्तिराहिस्पद नामगोत्र वेदनीयंगळं निमित्तमागुळळदरिदमुमघातिगळ चरमदोळु विघ्नं पठि - सल्पदु ॥ आउवलेण अवद्विदि भवस्स इदि णाममाउपुव्वं तु । भवमस्सिय णीचुच्चं इदि गोदं णाम पुव्वं तु ॥ १८॥ आयु ले नाव स्थितिर्भवस्येति नाम आयुः पूर्वत्रं तु । भवमाश्रित्य नीचोच्चमिति गोत्रं नामपूत्रं ॥ आयुलाधानदिदमवस्थितियक्कुमाउदवकें दोडे नामक काय्र्य्यगतिलक्षणमप्प भवस्य ears दिg कारणमागि । तु मर्त नाममायुष्य कम्मं मं पूर्व मागुदादुदु । तु मत्ते भवमनासि नीचत्वमुच्चत्वमुदि कारणमागि गोत्रकर्म्म नामक मं पूमागुदादुदु | अभ्यहितात् पूज्यात् ज्ञानं पूर्वं पठितं हि तथाहि - 'लघुध्यजाद्यदत्पाजच्यं' इति सूत्रसद्भावात् । ततो दर्शनं भवति । अतः सम्यक्त्वम् । वीर्यं तु जीवाजीवगतमिति चरमे पठितम् ॥१६॥ I अंत रायकर्म धात्यपि अघातिवत् निश्शेषजीवगुणघातेऽशक्यात् नामगोत्र वेदनीयनिमित्ताच्च अघातिनां चरमे पठितम् ॥१७॥ तु - पुनः - आयुर्बलाधानेन अवस्थितिः नामाकार्यगतिलक्षणभवस्येति हेतोः नामकर्म आयुष्कर्मपूर्वक भवति । तु पुनः भवमाश्रित्यैव नीचत्वमुच्चत्वं चेति हेतोः गोत्रकर्म नामकर्मपूर्वकं ॥ १८ ॥ अन्तराय कर्म घाती होनेपर भी अघातीके समान है क्योंकि वह जीवके समस्त गुणको घात में असमर्थ है। तथा नाम, गोत्र और वेदनीयके निमित्तसे अपना कार्य करता है इसलिए उसका पाठ अघाति कर्मों के अन्त में किया है ||१७|| Jain Education International ५ १० पूज्य होनेसे ज्ञानको पहले कहा क्योंकि व्याकरणके सूत्रमें कहा है कि अल्प अशरवालेसे जो पूज्य होता है उसका पूर्व निपात होता है। उसके पश्चात् दर्शन कहा है, उसके पश्चात् सम्यक्त्व कहा । और वीर्य तो जीव-अजीव दोनोंमें पाया जाता है इसलिए अन्तमें २५ पढ़ा है। इस प्रकार ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तरायका पाठक्रम जानना ॥ १६ ॥ For Private & Personal Use Only १५ २० ३० नामकर्मका कार्य जो भव है उस भवकी अवस्थिति आयुकर्मके बलाघानसे होती है, आयुकर्म के बिना भवका ठहरना सम्भव नहीं है । अतः नामकर्मसे पहले आयुकर्म कहा । तथा भवको लेकर नीचपना उच्चपना होता है इसलिए गोत्रकर्मसे पहले नामकर्म कहा है ||१८|| क - २ www.jainelibrary.org
SR No.001325
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages698
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Karma, P000, & P040
File Size16 MB
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