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________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्वप्रदीपिका अनंतरं देवगतियोळदययोग्यप्रकृतिगळ पेन्दपरु : भोगं व सुरे णरचउणराउबज्जूण सुरचउसुराउं । खिव देवे वित्थी इथिम्मि ण पुरिसवेदो य ॥३०४॥ भोगवत्सुरे नर जतुर्णरायुज्रोनं सुरचतुः सुरायुः। क्षिप देवे नैव स्त्री स्त्रियां न पुरुषवेदश्च ॥ भोगभूमिजरोल पेन्दते सुररोळभुदययोग्यप्रकृतिगळेपत्ते टप्पुववरोळ मनुष्यगतिद्वयममौदारिकद्वयमुमेंब नरचतुष्टयमुमं नरायुष्यमुमं वज्रऋषभनाराचशरीरसंहननंमुमंतारुं प्रकृतिगोळं करेंदोत्तरटवरोल देगतिद्वितयं वैक्रियिकद्वितयमुमेंब सुरचतुष्कमुं सुरायुष्यमिते, प्रकृतिगळं कूडत्तं विरलु सामान्यदेवोदययोग्य प्रकृतिगळेप्पत्तेळु ७७। अल्लि मिथ्यादृष्टियोळु मिथ्यात्वप्रकृतियों दे व्युन्छित्तियक्कुं १। सासादननोळन्तानुबंधिकषायचतुष्टयमे व्युचित्तियक्कुं १० ४। मिश्रनो मिश्रप्रकृतियों दे छेदमकुं १। असंयतनोछु द्वितीयकषाय चतुष्क, सुरचतुष्कमुं सुरायुष्यमुमितों भत्त ९ प्रकृतिगळु व्युच्छित्तिपप्पुनितागुत्तं विरलु मिथ्यादष्टिगणस्थानदोळु मिश्रप्रकृतियुं सम्यक्त्वप्रकृतियुमेरडुमनुदयंगळु २। उदयंगळेप्पत्तय्दु ७५ । सासादनगुणस्थानदोळो दु गुडियनुदयंगळ पूरु ३ । उदयप्रकृतिगळेपत्त नाल्कु ७४। मिश्रगुणस्थानदोळु नाल्कुगुडियनुव यंगळेळरोळु मिश्रप्रकृतियं कळेदुदयंगळोळ कूडिदेवानुपूळ्यमं उदयंगळोळ, कळेवनुदयंगळोळ कुडुत्तं विरलनुदयंगळेळ ७। उदयप्रकृतिगळेपत्तु ७०। असंयतगुणस्थानदोळो दु. गूडियनुदय प्रकृतिगळे टरोलु सम्यक्त्वप्रकृतियुमं देवानुपूय॑मुमं कळेदुदयंगळोळ कूडुत्तं विरलनु अय देवगताबाह सुरेषु भोगभूमिवदिति अष्टसप्ततिः । तत्र मनुष्यगतिद्वयौदारिकद्वयनरायुर्वज्रऋषभनाराचसहनान्यपनीय देवगतिद्वयवैक्रियिकद्वयसुरायुस्सु निक्षिप्तेषु सामान्यदेवोदययोग्याः सप्तसप्ततिः । तत्र मिथ्यादृष्टौ मिथ्यात्वं २० व्युच्छित्तिः । सासादने अनंतानुबंधिचतुष्कं । मिश्रे मिश्रं । असंयते द्वितीयकषाय चतुष्कसुरचतुष्कसुरायूंषि । एवं सति मिथ्यादृष्टौ अनुदये मिश्रसम्यक्त्वप्रकृती। उदये पंचसप्ततिः । सासादने एका संयोज्य अनुदयस्तिस्रः । आगे देवगतमें कहते हैं देवोंमें भोगभूमिकी तरह अठहत्तर उदययोग्य है। किन्तु उनमें-से मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी, औदारिक शरीर, औदारिक अंगोपांग, मनुष्याय, वर्षभनाराच संहनन घटाकर २५ देवगति, देवानुपूर्वी, वैक्रियिक शरीर, वैक्रियिक अंगोपांग और देवायु मिलानेसे सामान्यदेवमें उदययोग्य सतहत्तर ७७ होती हैं। उनमें मिथ्यादृष्टिमें मिथ्यात्वकी व्युच्छित्ति होती है। सासादनमें अनन्तानुबन्धी चार, मिश्रमें मिश्र, असंयतमें अप्रत्याख्यानावरण चार, देवायु, वैक्रियिक शरीर और वैक्रियिक अंगोपांगकी व्युच्छित्ति होती है। ऐसा होनेपर १. मिथ्यादृष्टिमें मिश्र और सम्यक्त्व प्रकृतिका अनुदय । उदय पचहत्तर। २. सासादनमें एक मिलाकर अनुदय तीन । उदय चौहत्तर । व्युच्छिति चार । १ म मुमनितारं प्रकृतिगलं कले। क-६० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001325
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages698
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Karma, P000, & P040
File Size16 MB
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