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________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका सप्तमबध्यमानायु:स्थानदोळु देवद्विकमनुवेल्लनमं माडिदेकेंद्रियविकलत्रयजीवंगे भुज्यमानतिर्यगायुर्बध्यमानमनुष्यायुष्यमुमल्लवितरनारकदेवाद्वितयमुमाहारकचतुष्टयमुं तोत्यमुं सम्यक्त्वप्रकृतियं मिश्रप्रकृतियं देवद्विकमु यिंत पन्नोंदु प्रकृतिरहितमागि नूर मूवत्तैळु प्रकृतिसत्वस्थानदोळ भुज्यमानकेंद्रियविकलत्रयविशिष्टतिर्यगायुष्यं बध्यमानतिय्यंगायुष्यनु भुज्यमानतिय्यंगायुष्यं बध्यमानमनुष्यायुष्यनुमें बरई भंगंगळोळ पुनरुक्तभंगमं कळेवोडो वे भंगमक्कु- ५ मल्लि अबद्धायुष्यंगे विरक्षितभुज्यमानायुष्यमल्लदितरायुस्त्रयमुमाहारकचतुष्टयमुं तीर्थमुं सम्यक्त्वप्रकृतियु मिश्रप्रकृतियुं देवद्विकमुमंतु पन्नेरडु प्रकृतिरहितमागि नूरमूवत्तारु प्रकृतिसत्व. स्थानदोळु : उज्वेल्लिददेवदुगे बिदियपदे चारि भंगया एवं । सपदे पढमो बिदियो सो चेव गरेसु उप्पण्णे ॥३६८॥ वेगुव्वद्वय रहिदे पंचिंदियतिरियजादिसुववण्णे। सुरछब्बंधे तदियो गरेसु तब्बंधणे तुरियो ॥३६९॥ उद्वेल्लनमं देवद्विकक्के माडिवेकेंद्रियविकलत्रयमिथ्यादृष्टिय द्वितीयपदमप्प अबद्धायुष्यस्थानवोळु ई प्रकारदिवं नाल्कु भंगंगळप्पुवाव प्रकारविवर्म दोर्ड देवतिकमनवेल्लनमं माडिदेकेंद्रियविकलत्रय भववोळु प्रथम भंगमक्कुमा जीवं मनुष्यनागि पुट्टि अपर्याप्तकालदोळ "ओराळे वा १५ मिस्से ण हि सुरणिरयाउहारणिरयदुर्ग। मिच्छतुगे देवचऊ तित्थं ण हि अविरवे अत्थि ॥ एंब नियममुंटप्पुरिदमा मिथ्यावृष्टि सुरचतुष्कर्म कट्टनप्पुरिदमल्लि द्वितीयभंगमक्कुमे. के दोर्ड संख्यैकत्वमुं' प्रकृतिभेवममुंटप्पुरिवं वैक्रियिकाष्टकमनुद्वेल्लनमं माविदंतप्प एकेंद्रियविक सप्तमं बध्यमानायुःस्थानमुद्वेल्लितदेवद्विकैकेंद्रियविकलत्रयजीवस्य भुज्यमानतिर्यग्बध्यमानमनुष्यायुषी त्यक्त्वा नारकदेवायुराहारकचतुष्कतीर्थसम्यक्त्व मिश्रदेवद्विकाभावात्सप्तत्रिंशच्छतक । तत्र भंगः भुज्यमानैकेंद्रिय- २० विकलत्रयविशिष्टतिर्यग्वध्यमानतिर्यगायुष्कः भुज्यमानतिर्यग्बध्यमानमनुष्यायुष्कश्चेति द्वयोः . पुनरुक्तमेकं विनकः ॥ ३६६-३६७ ॥ होते हैं। सातवाँ बद्धायुस्थान जिनके देव द्विककी उद्वेलना हुई है ऐसे एकेन्द्रिय विकलेन्द्रिय जीवोंके मुज्यमान तिथंचायु बध्यमान मनुष्यायु बिना शेष देवायु नरकायु आहारक चतुष्क, तीर्थकर, सम्यक्त्व मोहनीय, मिश्र मोहनीय, देवद्विकका अभाव होनेसे एक सौ सैंतील २५ प्रकृतिरूप है। वहाँ भंग मुज्यमान एकेन्द्रिय विकलेन्द्रिय सम्बन्धी तिथंचायु बध्यमान तियं चायु तथा भुज्यमान तिर्यंचायु बध्यमान मनुष्याय ये दो होते हैं। उनमें से मुज्यमान तियंचायु बध्यमान तियंचायु पुनरुक्त है। अतः एक ही भंग है ।।३६६-३६७॥ १. यिल्लि संख्यैकत्वमे ते दोडे आ जीब मनुष्यनागि पट्टि अल्लि अपर्याप्तकाल दोळु सुरचतुष्कर्म कट्टनप्पुरि पूर्वदल्लिउद्वेल्लनमं माग्दि सुरद्विकक्के तात्कालिकसत्वं घटिसदु । पूर्वदल्लि कट्टिद क्रियिकद्विक ३० सत्वमुंटप्पुरि संख्यैकत्वमुंटु । प्रकृतिभेदम ते दोडे अल्लि तिर्यगायुष्यं भुज्यमानमिल्लि मनुष्यायुष्यमेव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001325
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages698
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Karma, P000, & P040
File Size16 MB
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