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________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका इल्लि बंधयुच्छित्ति संख्येगळं पैदपरु : पणारसमुणतीसं मिच्छदुगे अविरदे छिदी चउरो । उवरिमपण सट्टीविय एक्कं सादं सजोगिम्मि ॥ ११७ ॥ पंचदशैकान्नत्रिशन्मिथ्यद्विके अविरते व्युच्छितयश्चतस्रः । उवरिम पंचषष्टिरपि च एकं १०३ सातं सयोगे ॥ मिथ्याद्विके मिथ्यादृष्टि सासादन गुणस्थानद्विकदोळु बंधव्युच्छित्तिगेल क्रमादिदं पंचदशैकाशित्प्रकृतिग । मिथ्यादृष्टियो १६ प्रकृतिगोळु नरकायुष्यमुं नरकद्विकमुं कळे शेष १३ प्रकृतिगळ मनुष्यायुष्यमुमं तिर्ध्वगायुष्यमुमं कूडिदोडे १५ प्रकृतिगळवु । सासादननोल ३१ प्रकृतिगोळ तिथ्यं मनुष्यायुर्द्वयमुं कळे २९ प्रकृतिगळु बंधव्युच्छित्ति गलप्पुवेक दोडा तिग्मनुष्यायुष्यंगळं कट्टुवडे मिश्रकालदो लब्ध्यपर्याप्तकनाग लेवेकुं । सासादननादोडे १० लब्ध्यपर्याप्तकरो पुट्टुवुदिल्ल । निर्वृत्यपर्याप्तकनुं मिश्रकाययोगिय ुर्दारदमायुधमं माळदिल्लg कारणमागि मिथ्यादृष्टिलब्ध्यपर्य्याप्तकने कट्टुगुं । तद्विवक्षेदिमा मिथ्यादृष्टि गुणस्थानदोळे बंधव्युच्छित्तिगळा दुवे दरिवुदु | अविरते असंयतनोळु व्युच्छित्तयश्चतत्रः अप्रत्याख्यान कषायचतुष्टयमे बंधव्युच्छित्तियप्पूवेकें दोडे वज्रऋषभनाराचादि षट्प्रकृतिगळु सासादननोळु बंधव्युच्छित्तिमा वरदमल्लिक्षं सेले देशसंयतन ४ प्रमत्तन ६ । अप्रमत्तन देवायुष्यं राशियोळकले १५ दुवै दर्द बिट्टु अकरण नोल आहारद्वयरहित शेष ३४ प्रकृतिगळुमनिवृत्तिकरणन ५ सूक्ष्मसांपरायन १६ कूडियितु उपरितन पंचषष्ठि प्रकृतिगळु सहितमागि असंयतनो बंधव्युच्छित्तिग ६९ अप्पु । सयोगकेवलि भट्टारकरोछु सातमोंदे बंधव्युच्छित्तियक्कु १ । मी गुणस्थानंगळोल बंधप्रकृतिगळु मिथ्यादृष्टियोल १०९ । अबंधंगळु ५ । सासादननोळ बंधप्रकृतिगळु ९४ अबंधप्रकृति Jain Education International तस्य गुणस्थानेषु व्युच्छित्ति संख्याति - मिथ्यादृष्टिद्वये व्युच्छित्तिः क्रमेण मिथ्यादृष्टौ पञ्चदश १५ । नरकायुर्नरकद्वयं चापनीय तिर्यग्मनुष्यायु:क्षेपात् पञ्चदश १५ । सासादने एकान्नत्रिंशत् । २९ । मिश्रकाययोगकाले लब्ध्यपर्याप्त कादन्यस्य आयुर्बन्धासंभवात् मरतिर्यगायुबोरपनयनात् । अविरते व्युच्छित्तिः वज्रर्षभनाराचादीनां षण्णां सासादने छेदात् अप्रत्याख्यानकषाय चतुष्कं देशसंयत चतुष्कं प्रमत्तषट्कं अप्रमत्तस्य देवायूराशौ न अपूर्वकरणस्य आहारकद्वयं विना शेष चतुस्त्रिशत् ३४ अनिवृत्तिकरणपञ्चकं सूक्ष्मसांपरायषोडशकमित्येकान्नसप्ततिः ६९ । सयोगे एकं २५ उनके गुणस्थानों में व्युच्छित्तियों की संख्या कहते हैं मिथ्यादृष्टि में नरकायु और नरकद्विक घटाकर तिर्यवायु और मनुष्यायुके मिलाने से व्युच्छित्ति होती है । सासादनमें उनतीसकी व्युच्छित्ति होती है क्योंकि मिश्रकाय योगके कालमें लब्ध्यपर्याप्तक के सिवाय अन्यके आयुबन्ध नहीं होनेसे मनुष्यायु तिर्यवायु कम हो जाती है । असंयत में वज्रर्षभनाराच आदि छहकी व्युच्छित्ति सासादन में होनेसे अप्रत्याख्यानावरण चार, देशसंयतकी चार, प्रमत्तकी छह, अप्रमत्तकी व्युच्छित्ति देवायु मूलमें नहीं है, अपूर्वकरणकी आहारकके बिना चौंतीस, अनिवृत्तिकरणको पाँच, सूक्ष्म साम्परायकी सोलह इस तरह सब मिलकर व्युच्छित्ति उनहत्तर है । सयोगी में एक सातावेदनीयकी For Private & Personal Use Only ५ २० ३० www.jainelibrary.org
SR No.001325
Book TitleGommatasara Karma kanad Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages698
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Karma, P000, & P040
File Size16 MB
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