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® जैन-तत्त्व प्रकाश ®
उत्पन्न होते हैं। नरक में उत्पन्न होने वाले नारकी जीव-(१) वहाँ के अशुभ पुद्गलों का आहार ग्रहण करके आहारपर्याप्ति को पूर्ण करते हैं । (२) ग्रहण किये हुए पुद्गल वैक्रिय शरीर के रूप में परिणत होते हैं, तब शरीरपर्याप्ति पूरी होती है (३) शरीर से इन्द्रियों का आकार बनने पर इन्द्रियपर्याप्ति पूर्ण होती है (४) फिर इन्द्रियों के द्वारा वायु को ग्रहण करते और छोड़ते हैं, तब श्वासोच्छवासपयोप्ति से पर्याप्त होते हैं (५-६) फिर मन और भाषा पर्याप्ति से पूर्ण होते हैं। फिर बिल के नीचे रही हुई कुम्भी में नीचे सिर और ऊपर पैर करके गिरते हैं। वे कुम्भियाँ चार प्रकार की कही गई हैं-(१) ऊँट की गर्दन के समान टेढ़ी-मेढ़ी (३) घी के कुप्पे सरीखीजिनका मुख चौड़ा और अधोभाग सँकड़ा होता है (३) डिब्बा जैसी-ऊपर और नीचे बराबर परिमाण वाली (४) अफीम के दौड़े जैसी—पेट चौड़ा और मुख सँकड़ा।
इन चार प्रकार की कुम्भियों में से किसी एक कुम्भी में गिरने के बाद नारकी जीव का शरीर फूल जाता है। शरीर फूल जाने के कारण वह उसमें बुरी तरह फंस जाता है। कुम्भी की तीखी धारें उसके चारों
ओर से चुभती हैं और नारकी जीव वेदना से तिलमिलाने लगता है। उस समय परमधामी देव उसे चीमटे या संडासी से पकड़ कर खींचते हैं । नारकी जीव के खण्ड-खण्ड होकर उसमें से निकलते हैं। इससे नारकी जीव को घोर वेदना तो होती है, मगर वह मरता नहीं है। कृत-कर्मों को भोगे विना छुटकारा नहीं मिलता। नारकी जीव के शरीर के वे टुकड़े फिर मिल जाते हैं और फिर जैसे का तैसा शरीर बन जाता है ।
नारकी जीवों की वेदनाएँ
नारकी जीवों को तीन प्रकार की वेदनाएँ प्रधान रूप से होती हैं(१) परमाधामी देवों के द्वारा दी जाने वाली वेदनाएँ, (२) क्षेत्रकृत अर्थात्