Book Title: Jain Tattva Prakash
Author(s): Amolakrushi Maharaj
Publisher: Amol Jain Gyanalaya

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Page 872
________________ # जैन-तत्व प्रकाश ८२६ ] महाविदेह क्षेत्र में सीमन्धर स्वामी आदि तीर्थंकरों के, गणधरों के तथा मुनियों और आर्थिकाओं के उपदेश और दर्शन का लाभ प्राप्त करूँगा | इससे राग और द्वेष का उच्छेद करने में समर्थ बनूँगा और फिर मानवजन्म को प्राप्त करके संयम और तप के द्वारा कर्मों का क्षय करके मोक्ष प्राप्त करूँगा। (१२) जैसे कोई गृहस्थ श्रीमन्त वन कर, अपने पुराने टूटे-फूटे घर का परित्याग कर देता है और विपुल द्रव्य का व्यय करके मनोहर हवेली वनवाता है और हवेली बन कर तैयार होते ही बड़े उत्सव और हर्ष के साथ उस नई हवेली में निवास करने लगता है, इसी प्रकार मेरी यह आत्मा संयम-तप आदि द्रव्य से श्रीमन्त बनी है । अब यह आधि, व्याधि, उपाधि से युक्त, अस्थि, मांस, रक्त आदि अशुचि द्रव्यों से परिपूर्ण, चमड़ी से मढ़े हुए, सड़न पड़न स्वभाव वाले इस औदारिक शरीर रूप झोंपड़ी का त्याग करने के लिए, पुण्य रूप विपुल द्रव्य को व्यय करके तैयार करवाये हुए, धियों एवं व्याधियों से रहित, इच्छानुसार रूप में परिणत हो जाने वाले देव के दिव्य शरीर रूपी हवेली में निवास करूँगा । वहाँ पहुँचाने के लिए मुझे मृत्यु रूपी मित्र सहायक मिल गया है ! मुझे मृत्यु से झिकना नहीं चाहिए, उसका स्वागत करना चाहिए । (१३) लोभी वणिक् भूख, प्यास, सर्दी, गर्मी आदि अनेक कष्ट सहन करके, देश-देशान्तर में भटक कर धन और माल का संचय करता है । संचय करके उसे अपने भंडार में सुरक्षित रखता है और तेजी की प्रतीक्षा करता है । भाव तेज होते ही अत्यन्त कष्ट - पूर्वक इकट्ठे हुए और रक्षित किये हुए माल की ममता का त्याग कर देता है और उसे बेच कर लाभ उठाता है । उसी प्रकार हे जीव ! प्राणप्यारे धन कुटुम्ब का परित्याग करके, क्षुधा तृषा शीत ताप उग्रविहार आदि का कष्ट सहन करके इस शरीर से तप, संयम, धर्म आदि रूप जो माल इकट्ठा किया है और उसे दोषों से बचा कर ना है, उस माल के बदले में अब स्वर्ग- मोक्ष रूपी लाभ प्राप्त करने के

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