Book Title: Jain Tattva Prakash
Author(s): Amolakrushi Maharaj
Publisher: Amol Jain Gyanalaya

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Page 876
________________ * जैन-तत्व प्रकाश क्षमा के साथ सहन कीं तो उन्हें तत्काल मोक्ष की प्राप्ति हुई । हे जीव, इन श्रादर्श पुरुषों के पावन चरितों से शिक्षा लेकर तू भी दुःख के समय समभाव धारण कर । तेरा भी आत्मकल्याण हो जायगा इसमें जरा भी सन्देह नहीं है । ८३० (२४) हे जीव ! तू ने नरक में दस प्रकार की घोर से घोर क्षेत्र-वेदना सहन की है । परमाधामियों की निर्दय मार-पीट भी सही है । तिर्यञ्च योनि में क्षुधा, तृषा, ताड़ना, पराधीनता आदि के विविध कष्ट सहन किये हैं । मनुष्यभव में दरिद्रता, दारुब वियोग की वेदना, पराधीनता आदि के दुःख गते हैं । यहाँ तक कि देवगति में भी अभियोग्य देव होकर इन्द्र के वज्रप्रहार आदि के दुःख भोगे हैं। वैसे कष्ट तो यहाँ तुझे नहीं हैं। मगर जितने कर्मों की निर्जरा अनन्त काल तक कष्ट सहते-सहते भी नहीं हुई, उतनी बल्कि उससे भी अनन्तगुणी निर्जरा समभाव से वेदनीय कर्म के उदय को सहन करने से हो जायगी । यही नहीं, सदा के लिए उन सब कष्टों से छुटकारा भी पा जायगा । (२५) संसार सम्बन्धी लेन-देन के व्यवहार में जो कई कर्जदार, साहूकार को सौ रुपये के बदले पंचानवे रुपये देकर नम्रतापूर्वक चुकौती माँगता है तो साहूकार सन्तुष्ट होकर चुकौती दे देता है । अगर कर्जदार ढिठाई करता है तो वाये दाम चुकाने पर भी पिण्ड छूटना कठिन हो जाता है । इसी प्रकार वेदनीय कर्म का यह उदय पूर्वोपार्जित ऋण को चुकाने के लिए श्राया है। जो कर्ज तेरे माथे पर चढ़ा है उसे नम्रता के साथ चुकता कर दे, जिससे थोड़े में ही तेरा छुटकारा हो जाय । (२६) श्रात्मन्, यह तू निश्चय समझ ले कि 'कडा कम्माण न मोक्ख अस्थि' अर्थात् पहले उपार्जन किये हुए कर्मों का फल भोगे विना छुटकारा नहीं हो सकता। ऐसी स्थिति में तू भोगने में समर्थ होता हुआ भी क्यों जी चुराता है ! वृथा क्यों व्याज बढ़ा रहा है ? बुद्धिमत्ता इसी में है कि शीघ्र से शीघ्र सारा कर्ज चुकता करके हल्का हो जा ।

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