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उपसंहार
एस धम्मे धुवे णिच्चे, सासए जिणदेसिए । सिद्धा सिझति चाणेण, सिज्झिस्संति तहावरे ॥त्ति बेमि।।
-श्री उत्तराध्ययन, अ० १६ इस 'जैनतत्त्वप्रकाश' ग्रन्थ में सूत्रधर्म और चारित्रधर्म आदि का जो विस्तारपूर्वक कथन किया गया है, वह धर्म भूतकाल में हुए अनन्त तीर्थङ्करों ने इसी प्रकार प्रतिपादन किया है। वर्तमान काल में महाविदेह क्षेत्र में विद्यमान बीस तीर्थङ्कर इसी प्रकार प्रतिपादन कर रहे हैं। और भविध्य में जो अनन्त तीर्थङ्कर होंगे वे सब इसी प्रकार प्रतिपादन करेंगे । अर्थात् इस ग्रन्थ का जो मूलाशय है वह जिनाज्ञा से सम्मत है, अतः वह धर्मपर्याय से ध्रुव निश्चल है, द्रव्यदृष्टि से नित्य है, वस्तुत्व की अपेक्षा से शाश्वतअविनाशी है। इस कारण वह सत्य है, तथ्य है, पथ्य है। सब के लिए आदरणीय और माननीय है, क्योंकि इस धर्म की परमाराधना करके भूतकाल में अनन्त जीव सिद्धि प्राप्त कर चुके हैं, वर्तमान में असंख्यात जीव सिद्ध हो रहे हैं और भविष्यकाल में अनन्त जीव सिद्धगति प्राप्त करेंगे।
ऐसा श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पाँचवें गणधर श्रीसुधर्मा स्वामी ने अपने ज्येष्ठ शिष्य श्री जम्बूस्वामी से कहा है ।