Book Title: Jain Tattva Prakash
Author(s): Amolakrushi Maharaj
Publisher: Amol Jain Gyanalaya

View full book text
Previous | Next

Page 880
________________ ८३४] ॐ जैन-तत्त्व प्रकाश सम्भव होता है, दुकान और उसमें रक्खे हुए द्रव्य-दोनों को बचाने क' प्रयत्न करता है। पर जब वह देखता है कि किसी भी अवस्था में दुकान नहीं बच सकती तो उसमें के द्रव्य को ही बचाने का प्रयत्न करता है। वह दुकान के साथ धन का नाश नहीं होने देता। इसी प्रकार धर्मात्मा पुरुष शरीर रूप दुकान की सहायता से तप, संयम, परोपकार आदि अनेक लाभ उपार्जन करते हैं और इस लाभ के कारण अन्न-वस्त्र प्रादि से उसका पोषण करते हैं और रोग रूपी साधारण आग लगने पर औषध-सेवन आदि के द्वारा उसकी रक्षा भी करते हैं । किन्तु मृत्यु रूप प्रचंड अग्नि लगने का प्रसंग उपस्थित होने पर, शरीर का किसी भी प्रकार बचाव न होता देख कर, शरीर रूपी दुकान की रक्षा की आशा छोड़ कर सम्यग्ज्ञान आदि रूप रत्नों की ही रक्षा में तत्पर होते हैं । क्योंकि आत्मिक गुणों के प्रसाद से ही अक्षय मोक्षसुख की प्राप्ति हो सकती है। यस्त्वविज्ञानवान् भवत्यमनस्कः सदाऽशुचिः। न स तत्पदमामोति संसार चाधिगच्छति ॥ यस्तु विज्ञानवान् भवति, समनस्कः सदा शुचिः। स तु तत्पदमामोति, यस्माद् भूयो न जायते ।। अर्थात्-जिस पुरुष को सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति नहीं हुई है और जो विचारशील नहीं है वह सदा अपवित्र है। वह संसार में परिभ्रमण करता है । उसे मुक्तिपद की प्राप्ति नहीं होती। किन्तु जो सम्यग्ज्ञानी और विचारशील है, जिसका अन्तःकरण सदैव पवित्र रहता है-शुद्ध भाव में रमण करता है, उसे उस अक्षय पद की प्राप्ति होती है जिससे फिर कभी लौटकर नहीं आना पड़ता। समाधिमरणस्थ के चार ध्यान (१) पिण्डस्थध्यान-शरीर की उत्पत्ति से लेकर प्रलय अवस्था तक होने वालों शरीर की विचित्रताओं को, अर्थात् पुद्गल के परिवर्तन का,

Loading...

Page Navigation
1 ... 878 879 880 881 882 883 884 885 886 887