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* अन्तिम शुद्धि *
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रोग आदि असमाधि के समय के वैराग्यमय विचारों का, शरीर के भीतर और बाहर रहे हुए अशुद्ध पदार्थों का, शरीर की आकृतियों के परिवर्तन का, शरीर और आत्मा की भिन्नता का, मन में चिन्तन करना पिण्डस्थध्यान कहलाता है । लोक के संस्थान का तथा इस ग्रन्थ के प्रथम खण्ड के द्वितीय प्रकरण में कथित लोकस्थित स्थानों का चिन्तन करना भी पिण्डस्थध्यान में ही अन्तर्गत है।
(२) पदस्थध्यान-नमस्कारमन्त्र, लोगस्स, नमुत्थुणं, शास्त्रस्वाध्याय, आलोचनापाठ, स्तनन, छन्द, महापुरुषों और सतियों के चरित्र आदि का पठन, श्रवण करके उसके मर्म का चिन्तन करना और मन को स्थिर करके उन महापुरुषों की महान् साधना पर विचार करना पदस्थध्यान है । पदस्थ-ध्यान में 'ओ' 'ओं हीं' आदि पवित्र मन्त्रों का भी ध्यान किया जाता है।
(३) रूपस्थध्यान-समवसरण में विराजमान अरिहन्त भगवान् के स्वरूप का चिन्तन करना। अरिहन्त परमात्मा के गुणों के साथ अपनी आत्मा के गुणों की एकता का, तथा आर्हन्त्यदशा प्राप्त करने के साधनों का चिन्तन-मनन करना।
(४) रूपातीतध्यान-सिद्ध भगवान् के स्वरूप का चिन्तन करना । सिद्ध भगवान् की आत्मा के साथ अपनी आत्मा के गुणों की समानता एवं एकता स्थापित करना। ऐसा विचार करना कि जैसे सिद्ध भगवान् क्या रूप से सत्-चित्-आनन्द स्वरूप हैं, उसी प्रकार मैं भी शक्तिरूप में सब-चित्तआनन्दमय हूँ। अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख, अवन्त वीर्य, अखण्डितता, अमूर्तिकता, अजरता, अमरता, अविनाशीपन आदि गुण सिद्ध भगवान में व्यक्त रूप से हैं और मुझमें भी यही सब गुण शक्ति रूप में विद्यमान हैं । इस दृष्टि से जो सिद्ध भगवान हैं सो ही मैं हूँ और जो मैं हूँ सो ही सिद्ध परमात्मा हैं