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*जैन-तत्र प्रकाश *
इस प्रकार चारों ध्यानों को बाह्यरूप में ध्यावे और फिर बाह्य रूप से खिसक कर शारीरिक रूप में संलग्न हो जाय, अर्थात् अपने ही शरीर के विभिन्न भागों को इन ध्यानों का विषय (ध्येय) कल्पित करके चिन्तन करे । जैसे - कमर के ऊपर के भाग की तरफ लक्ष्य स्थिर रखना पिण्डस्थध्यान और कमर के नीचे के भाग की तरफ लक्ष्य रखना पदस्थध्यान | ग्रीवा के ऊपर के अंग की तरफ मनोवृत्ति को एकाग्र करना रूपस्थध्यान और सर्व शरीरव्यापी आत्मा का ध्यान करना रूपातीत ध्यान ।
इस तरह चार प्रकार का धर्मध्यान करके फिर शुक्लध्यान की ओर बढ़ने का प्रयास करना चाहिए । शुक्लध्यान का पहला पाया पृथक्त्ववितर्क है । आत्मद्रव्य और उसकी पर्यायों में गोते लगाकर इसकी साधना करनी चाहिए | तत्पश्चात् पर्यायों के चिन्तन का परित्याग करके केवल मात्र द्रव्य में ही स्थिर हो कर एकत्ववितर्क नामक शुक्लध्यान के दूसरे पाये का चिन्तन करना चाहिए । इस ध्यान से आत्मा जब श्रेणीसम्पन्न हो जाता है और आत्मा के गुणों में तन्मय हो जाता है तो चार घातिया कर्मों का क्षय हो जाता है और केवलदर्शन तथा केवलज्ञान प्राप्त कर लेता है । फिर शुक्लध्यान का तीसरा पाया आरम्भ होता है। इसमें योग की सूक्ष्मक्रिया बनी रहती है, अतः उसे सूक्ष्मक्रियाऽप्रतिपातिध्यान कहते हैं । इसके पश्चात् चौथा पाया स्वभावतः आरम्भ हो जाता है । उसमें सूक्ष्मक्रिया का भी अभाव हो जाता है, अतः उसे समुच्छिनक्रियाऽनिवृत्तिध्यान कहते हैं ।
शुक्लध्यान का चौथा पाया प्राप्त होने पर शेष रहे हुए चार अघातिक कर्मों का भी एक साथ क्षय हो जाता है । तब आत्मा सर्वथा निष्कर्म होकर मोक्षप्राप्ति करके सिद्धदशा प्राप्त कर लेती है । उस दशा में सम्पूर्ण कृतकृत्यता, परिपूर्ण निष्ठितार्थता और सर्वोत्कृष्ट सुखमय अवस्था प्राप्त हो जाती है । संसार-चक्र से आत्मा का छुटकारा हो जाता है ।
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कदाचित् शुद्ध ध्यान की मन्दता और शुभध्यान की प्रबलता हो जाय और सात लव या इससे कुछ ज्यादा की कम हो और इस कारण से