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ॐ अन्तिम शुद्धि
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(२१) हे जीव ! यदि तू रोग-जन्य दुःख से घबराता हो, सचमुच ही यह रोग तुझे अप्रिय प्रतीत होता हो और इस दुःख से अगर तू ऊब गया हो तो अब तू बाह्य उपचार का परित्याग कर दे । क्योंकि यह रोग कर्मावीन है। कर्माधीन रोग या कष्ट को मिटाने की सत्ता बाह्योपचार में नहीं है । कदाचित् एकाध रोग कुछ कम भी हो गया तो क्या हुआ ? हमेशा के लिए तो वह मिट ही नहीं सकता-संख्यात या असंख्यात काल के अनन्तर फिर उसका उदय हो जाता है । अगर तू समस्त रोगों की सदा के लिए चिकित्सा करना चाहता है तो श्रीजिनेन्द्र भगवान् रूप अलौकिक वैद्यराज द्वारा कही हुई समाधि रूप परमौषध का सेवन कर । समाधि ऐसी अद्भुत रसायन है कि उसके सेवन से मानसिक, शारीरिक और आत्मिक-सभी रोग समूल नष्ट हो जाते हैं। उसको सेवन करने वाला अनन्त, अक्षय, असीम, अव्यावाध आनन्द का भोक्ता बन जाता है। __ (२२) ज्यों-ज्यों वेदनीय कर्म का उदय प्रबल होता जाय त्यों-त्यों आप भी अधिक प्रसन्न होता चला जाय । क्योंकि सुवर्ण को जैसे-जैसे अधिकाधिक ताप लगता जाता है, वह वैसे ही वैसे स्वच्छ होता जाता है
और कुन्दन बन जाता है। इसी प्रकार तीव्र वेदनीय कर्म का उदय होने पर समभाव धारण करने से कठिन कर्मों का भी शीघ्र ही समूल नाश हो जाता है । उस समय आत्मा रूपी सुवर्ण शुद्ध एवं निर्मल होकर कंचन अर्थात् सिद्धस्वरूप बन जाता है। कदाचित् कुछ कर्म शेष रह जाएँ तो देवगति तो मिलती ही है।
(२३) मुनिवर गजसुकुमार के मस्तक पर सोमल ब्राह्मण ने अंगार रखे । मुनि ने अंगारों की घोरतर वेदना सहन की । मुनिराज स्कंधक के शरीर की चमड़ी उनके जीते जी उन्हीं के भगिनीपति ने उतरवा ली। उन्होंने वह दुस्सह वेदना सहन की । श्री मुनिसुव्रतनाथ तीर्थङ्कर के शासन के समय के स्कंधक मुनि के ५०० शिष्यों को पालक प्रधान ने पानी में पिलवा दिया। उन क्षमाशील मुनियों ने वह असीम वेदना समभाव से सहन की। इन सब महापुरुषों ने रोमांच खड़ा कर देने वाली वेदनाएँ समभाव, शान्ति और