Book Title: Jain Tattva Prakash
Author(s): Amolakrushi Maharaj
Publisher: Amol Jain Gyanalaya

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Page 846
________________ ८००। 2 जैन-तत्व प्रकाश ® धारण करना उचित है। आगे ज्यों-ज्यों अवसर प्राप्त होता जाय त्यों-त्यों व्रतों में वृद्धि करके सम्पूर्ण व्रतों को ग्रहण करना चाहिए। श्रावक की ग्यारह पडिमाएँ पूर्वोक्त बारह व्रतों का पालन करते-करते और अपने वैराग्यभाव में वृद्धि करते-करते श्रावक जब विशेष रूप से विरक्त होते हैं, तब अधिक धर्म-साधना की अभिलाषा से प्रेरित होकर अपने गहकार्य का और परिग्रह का भार अपने पुत्र, भ्राता आदि को सौंप देते हैं। वे स्वयं गार्हस्थ्य संबंधी ममता से निवृत्त हो जाते हैं । इसके पश्चात् धर्मोपकरण-श्रासन गुच्छक, रजोहरण, मुखवस्त्रिका, माला, शास्त्र, ओढ़ने-विछाने के वस्त्र, भाजन-मासरिया आदि, लेकर पौषधशाला या उपाश्रय आदि धर्मस्थान में चले जाते हैं। फिर नीचे लिखी हुई श्रावक की प्रतिमाओं का शास्त्रोक्त विधि के अनुसार समाचरण करते हैं । यथा श्रावकपदानि देवरेकाश देशितानि येषु खलु । स्वगुणारन्यगुणैः सह, सन्तिष्ठन्ते क्रमविवृद्धाः ॥ -रत्नकरण्डकश्रावकाचार । अर्थाद-तीर्थङ्कर देवों ने श्रावक के ग्यारह स्थान कहे हैं। वे स्थान क्रम से वृद्धि को प्राप्त होते हैं और अगले स्थानों में पूर्व-पूर्व के गुण पाये जाते हैं। तात्पर्य यह है कि पहली प्रतिमा की विधि दूसरी प्रतिमा में और इसी प्रकार सब पिछली प्रतिमाओं की विधि अगली प्रतिमाओं में भी पालन की जाती है । वे प्रतिमाएँ इस प्रकार हैं: (१) दर्शनप्रतिमा (दसणपडिमा)-एक महीने तक निर्मल सम्यक्त्व का पालन करे । सम्यक्त्व का शंका, कांक्षा आदि कोई भी अलिचार किंचित् भी न लगने दे। गृहस्थों को तथा अन्यतीर्थियों को नमस्कार आदि न करे और एकान्तर उपवास करे ।

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