Book Title: Jain Tattva Prakash
Author(s): Amolakrushi Maharaj
Publisher: Amol Jain Gyanalaya

View full book text
Previous | Next

Page 865
________________ * अन्तिम शुद्धि * [८१६ इस प्रकार वन्दना-नमस्कार करके, पूर्व में आचरण किये हुए सम्यक्त्व और व्रतों में आज इस समय तक, जानते-अनजानते, स्ववश, परवश भी कोई अतिचार लगा हो, उसकी आलोचना-विचारणा करके उससे निवृत्त होता हूँ। आत्मा की सानी से उसकी निन्दा करता हूँ, गुरु की साक्षी से उसकी गर्दा करता हूँ। इस तरह कह कर भविष्य के लिए प्रत्याख्यान करे । माया, मिथ्यात्व और निदान, इन तीनों शल्यों का सर्वथा परित्याग करे । इस प्रकार अपने अन्तःकरण को पूरी तरह निर्मल बनाकर 'सव्वं पाणाइवायं पच्चक्खामि' अर्थात् हिंसा का सर्वथा त्याग करता हूँ, 'सव्वं मुसावायं पच्चक्खामि' मषावाद का सर्वथा त्याग करता हूँ, 'सव्वं अदिण्णादानं पच्चक्खामि' अदत्तादान का सर्वथा त्याग करता हूँ, 'सव्वं मेहुणं पच्चक्खामि' मैथुन का सर्वथा त्याग करता हूँ, 'सव्वं परिग्गहं पच्चक्खामि' परिग्रह का सर्वथा त्याग करता हूँ, 'सव्वं कोहं माणं मायं लोहं पच्चक्खामि' अर्थात् क्रोध, मान, माया लोभ का सर्वथा त्याग करता हूँ, 'रागद्दोसं कलह अब्भक्खाणं पेसुन्नं, परपरिवायं, रइयरई, मायामोसं, मिच्छादसणसल्लं, अकरणिज्जं जोगं पच्चक्खामि' सब राग, द्वेष, कलह, अभ्याख्यान, पैशुन्य, परपरिवाद, रति, अरति, मायामृषा, मिथ्यादर्शनशल्य और अकरणीय योग का प्रत्याख्यान करता हूँ। 'जावजीवं तिविहं तिविहेणं' जीवन पर्यन्त तीन करण तीन योग से, 'न करेमि, न कारवेमि, करंतं पि अन्नं न समणुजाणामि, मणसा वयसा कायसा' अर्थात् उक्त अठारह ही पापों का सेवन न करूँगा, न कराऊँगा और न करने वाले की अनुमोदना करूँगा; मन से, वचन से, काय से । इस तरह अठारह ही पापों का त्याग करे । तत्पश्चात्- 'सव्वं असणं, पाणं, खाइमं साइमं चउविहं पि आहारं पच्चक्खामि' अर्थात् सर्वथा प्रकार से-विना किसी आगार के अन्न, पानी पकवान, मुखवास का तथा (पि-अपि शब्द से) सूंघने की वस्तु का, आँख में डालने के अंजन आदि का भी प्रत्याख्यान करता हूँ। ऐसा कह कर पाहार का सर्वथा परित्याग कर दे।

Loading...

Page Navigation
1 ... 863 864 865 866 867 868 869 870 871 872 873 874 875 876 877 878 879 880 881 882 883 884 885 886 887