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* जैन-तत्व प्रकाश ®
(५) कामभोगासंसप्पभोगे-काम-भोगों की इच्छा करना।
संलेखनाव्रत जीवन का अंतिम और महान् व्रत है । वह मत्यु को सुधारने की उत्कृष्ट कला है । इस कला की साधना अत्तीर सावधानी के साथ करनी चाहिए । उक्त पाँच अतिचारों में से किसी भी अतिचार का सेवन नहीं करना चाहिए । संथारे का प्रधान फल आत्मशुद्धि और आत्मकल्याण है। उससे आनुषंगिक फल के रूप में जो सांसारिक सुख प्राप्त होने वाले हैं वे तो इच्छा न करने पर भी स्वतः प्राप्त हो जाते हैं। उन फलों की इच्छा करने से व्रत मलीन हो जाता है और व्रत का प्रधान फल मारा जाता है। अतएव किसी भी प्रकार की सांसारिक कामना नहीं रखते हुए, जिनेन्द्र भगवान् के गुणों में ही अपने चित्त को रमाकर, संसार के अनित्य स्वरूप का विचार करते हुए, धर्मध्यान में ही संथारे का समय व्यतीत करना चाहिए । कहा भी है
किं बहुना लिखितेन, संपादिदमुच्यते ।
त्यागो विषयमात्रस्य, कर्चव्योऽखिलमुमुक्षुभिः ॥ अर्थात्-अधिक लिखने से क्या लाभ ! संक्षेप में यही कहना पर्याप्त है कि मोक्ष की अभिलाषा रखने वालों को विषय मात्र का त्याग कर देना चाहिए।
संलेखना वाले की भावना
(१) अहा ! पुद्गल के परमाणुओं के मिलने पर इस शरीर-पिण्ड का निर्माण हुआ था । देखते-देखते ही इसका प्रलय होने लगा ! पुद्गलों का संयोग ऐसा विनाशशील है !
. (२) प्रभो! आपने कहा था-'अधुवे असासयंमि' अर्थात् यह जीवन अध्रुव (अस्थिर) और प्रशाश्वत (अनित्य) है, आपके इस कथन पर इतने