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* अन्तिम शुद्धि *
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मा णं वाहियं पित्तियं कप्फियं वात, पित्त, कफ, श्लेष्म, सन्निपात संभीमं सन्निवाइयं विविहा आदि विविध प्रकार के रोगों और रोगायंका परिसहा उवसग्गा प्रातकों, परीषहों और उपसर्गों फासा फुसंतु
तथा अप्रिय स्पर्शों का संयोग न हो
(उसी शरीर को अब)। चरमेहिं उस्सासनीसासेहि-अन्तिम श्वासोच्छ्वास पर्यन्त त्याग करता वोसिरामि हूँ अर्थात् शारीरिक ममत्व का त्याग करता हूँ कालं अणवकंखमाणे-जल्दी मत्यु हो जाय, ऐसी इच्छा न करता हुआ विहरामि- विचरता हुँ।
संलेखना के पाँच अतिचार
(१) इह लोगासंसप्पभोगे-इस संथारे के फलस्वरूप, मेरी कीर्ति, ख्याति, प्रतिष्ठा हो, लोग मुझे बड़ा त्यागी, वैरागी समझ, धन्य धन्य कहें, इस प्रकार इस लोक संबंधी आकांक्षा करने से अतिचार लगता है।
___(२) परलोगासंसप्पोगे-मत्यु के पश्चात् मुझे इन्द्र का पद मिले, उत्कृष्ट ऋद्धि का धारक देव बन, चक्रवर्ती या राजा होऊँ, सुन्दर शरीर की प्राप्ति हो, संसार के भोगोपभोग प्राप्त हों, इत्यादि परलोक संबंधी आंकाक्षा करने से यह अतिचार लगता है।
(३) जीवियासंसप्पोगे-संथारे में अपनी महिमा पूजा होती देख कर बहुत समय तक जीवित रहने की इच्छा करना ।*
(४) मरणासंसप्पोगे-सुधा, तृषा आदि की पीड़ा से व्याकुल होकर जन्दी मर जाने की इच्छा करना ।*
* अधिक जीना या जल्दी मरना किसी की इच्छा के अधीन नहीं है । इच्छा करने से भायु कम ज्यादा नहीं हो सकती, मिर्क कर्म का बन्ध होता है । अतएव . व्यर्थ कर्म-बन्ध नहीं करना चाहिए।