Book Title: Jain Tattva Prakash
Author(s): Amolakrushi Maharaj
Publisher: Amol Jain Gyanalaya

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Page 862
________________ ८१६] जैन-तत्व प्रकाश के बिल वगैरह से रहित होनी चाहिए। उसे सूक्ष्म दृष्टि से देखकर फिर संथारा करने की जगह या जाय । इतना सब कर चुकने के पश्चात् प्रतिलेखन और प्रमार्जन करने में तथा गमन-प्रागमन करने में जो पाप लगा हो, उसकी निवृत्ति के लिए पूर्वोक्त विधि के अनुसार 'इच्छाकारेण' का तथा 'तस्सुत्तरी' का पाठ कह कर 'इच्छाकारेण' का कायोत्सर्ग करे, तत्पश्चात् 'लोगस्स' का पाठ बोले । फिर निम्नलिखित शब्द कहे--प्रतिलेखना में पृथ्वीकाय आदि किसी भी काय की विराधना की हो या कोई भी दोष लगा हो तो 'तस्स मिच्छा मि दुक्कडं ।' इसके पश्चात् अगर शरीर कष्ट सहन करने में समर्थ हो तो जमीन पर या शिला पर बिछौना करके उस पर संथारा करे। अगर शरीर असमर्थ प्रतीत हो तो गेहूँ, चावल, कोद्रव, राला आदि का पराल या घास, जो साफ और सूखा हो और जिसमें धान्य के दाने बिलकुल न हों, मिल जाय तो उसे लाकर उसका ३॥ हाथ लम्बा और सवा हाथ चौड़ा बिछौना करे । उसे श्वेत वस्त्र से ढंक कर उसके ऊपर पूर्व या उत्तर की ओर मुख करके, पर्यङ्क सन (पालथी मार कर) आदि किसी सुखमय आसन से बैठे । अगर बिना सहारे बैठने की शक्ति न हो तो भींत आदि किसी वस्तु का सहारा लेकर बैठे। अथवा लेटा-लेटा ही इच्छानुसार श्रासन करे । फिर दोनों हाथ जोड़ कर दसों उंगलियाँ एकत्र करे। जिस प्रकार अन्य मतावलम्बी आरती घुमाते हैं, उसी प्रकार जोड़े हुए हाथों को दाहिनी ओर से बाई ओर उतारता हुआ तीन बार घुमावे । फिर मस्तक पर स्थापित करे । तत्पश्चात् निम्नलिखित 'नमुत्यु णं' के पाठ का उच्चारण करेः नमुत्थु णं नमस्कार हो अरिहंताणं भगवंताणं-अरिहन्त भगवान् को आइगराणं-धर्म की आदि करने वाले तित्थयराणं-तीर्थ की स्थापना करने वाले

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