Book Title: Jain Tattva Prakash
Author(s): Amolakrushi Maharaj
Publisher: Amol Jain Gyanalaya

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Page 861
________________ * अन्तिम शुद्धि * [८१५ को ग्रहण करने के पश्चात् सम्यक्त्व में और व्रतों में उपयोगपूर्वक जो-जो अतिचार लगे हों, उनकी गवेषणा करे। अतिचारों की गवेषणा करने पर स्ववश, परवश या मोहवश जो जो अभिचार लगे हों, उन सब छोटे-बड़े अतिचारों की आलोचना करने के लिए प्राचार्य, उपाध्याय अथवा साधु, जो उस अवसर पर निकट में विराजमान हों, उनके समक्ष निवेदन कर दे। कदाचित् आलोचना सुनने योग्य साधु मौजूद न हों तो गंभीरता आदि गुणों से युक्त साध्वीजी के सामने अपने दोषों को प्रकट करे । अगर साध्वीजी का योग भी न मिले तो उक्त गुणयुक्त श्रावक के समक्ष और श्रावक भी मौजूदा न हो तो श्राविका के सामने अपने दोषों को प्रकट कर दे। कदाचित् श्राविका भी न हो तो जंगल में जाकर पूर्व तथा उत्तर दिशा की ओर मुख करके, सीमन्धर स्वामी को नमस्कार करके, हाथ जोड़ कर खड़ा हो और पुकार कर कहे-प्रभो ! मैंने अमुक-अमुक अनाचीर्ण का आचरण किया है, मैं अपनी समझ के अनुसार उसका प्रायश्चित्त आपकी साक्षी से स्वीकार करता हूँ। अगर वह न्यून या अधिक हो तो 'तस्स मिच्छा मि दुक्कडं । इस प्रकार निश्शल्य होकर फिर संथारा करे। जैसे काले रंग का कोयला भाग में पड़ कर श्वेत वर्ण की राख के रूप में परिणत हो जाता है, उसी प्रकार संथारा रूपी अग्नि में झौंकने से आत्मा भी पाप की कालिमा को त्याग कर उज्ज्वल हो जाती है । अतएव संथारा करने के इच्छुक साधक को ऐसे स्थान पर जाना चाहिए जहाँ खान-पान, भोग-विलास के पदार्थ विद्यमान न हों, संसार-व्यवहार सम्बन्धी शब्द और दृश्य सुनने तथा देखने में न आवें । जहाँ त्रस एवं स्थावर जीवों की हिंसा होने की सम्भावना न हो । ऐसे उपाश्रय, पौषधशाला आदि स्थानों में अथवा जंगल, पहाड़, गुफा आदि स्थानों में जाय । वहाँ जाकर जहाँ चित्त की समाधि का योग हो ऐसे शिला आदि स्थानों को रजोहरण से आहिस्ते-आहिस्ते प्रमार्जन करे। कचरे को किसी पाटी आदि पर ले ले और निर्जीव जगह देख कर विधिपूर्वक परठ दे । फिर लघुनीति और बड़ी नीति, श्लेष्म और पित्त आदि को परठने की भूमिका का प्रतिलेखन करे । वह भूमि हरितकाय; अंकुर, चींटी आदि

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