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® सागारधर्म-श्रावकाचार
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इस आर्यभमि भारतवर्ष में कई नामधारी साधु ऐसे भी हैं जो अपने सिवाय दूसरों को दान देने में एकान्त पाप बतलाते हैं। और कई श्रावक भी हैं जो स्वयं दान देने में और दूसरों से दिलाने में समर्थ होते हुए भी पक्षपात से, लोभ से, द्वेष से प्रेरित होकर स्वयं दान देते नहीं हैं और दूसरों को मना करते हैं। वे अपने सम्प्रदाय के साधुओं के सिवाय दूसरों को मिथ्यात्वी, पाखण्डी, भगवान् की आज्ञा के चोर, कुपात्र, आदि कहकर कलंकित करते हैं । अगर कोई दाता दान देता है तो उसे तलवार की धार को तीखा करने वाला, भगवान् का चोर और सम्यक्त्व का नाशक, नरकगामी कह कर भ्रम उत्पन्न करते हैं । अपने भिवाय अन्य को दान देने का त्याग भी कराते हैं।
भोले भक्त ऐसे पाखण्डियों के उपदेश को सत्य समझ कर उसे स्वी. कार कर लेते हैं । फलस्वरूप वे त्यागी, वैरागी, जिनाज्ञानुयायी साधुओं के द्वेषी बन जाते हैं और बाबा, जोगी, फकीर आदि से भी जैन साधुओं को खराब समझने लगते है । कई बार तो वे साधुओं को कष्ट भी पहुँचाते हैं। उनकी स्थिति कितनी दयनीय है ?
भगवान् ने भोजन-पानी के विच्छेद को प्रथम व्रत का अतिचार बतलाया है । ऋषभदेवजी ने अपने पूर्वभव में एक बैल के मुंह पर छींका चढ़ाया था, जिसके फलस्वरूप बारह महीनों तक उन्हें आहार की प्राप्ति नहीं हुई। जब तीर्थङ्कर जैसे महान् पुण्यशाली पुरुषों को भी कर्मों ने नहीं छोड़ा तो ऐसे लोगों की क्या दशा होगी ?
इस कथन पर विचार करके श्रावक को अवसर के अनुसार यथाशक्ति दान अवश्य करना चाहिए।
यहाँ तक पाँच अणवतों का, तीन गुणवतों का और चार शिक्षाव्रतों का संक्षिप्त वर्णन किया गया है । शक्ति हो तो इन बारह व्रतों को स्वीकार करना श्रावक का कर्तव्य है। कदाचित् वारह व्रतों को धारण करने की शक्ति न हो तो जितने व्रत धारण करने की शक्ति हो उतने ही व्रतों की