Book Title: Jain Tattva Prakash
Author(s): Amolakrushi Maharaj
Publisher: Amol Jain Gyanalaya

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Page 843
________________ * सागारधर्म-श्रावकाचार * [७६७ ऐसा जानता हुआ कोई गृहस्थ साधु को कोई वस्तु न देने के इरादे से वह वस्तु सचित्त के ऊपर रख दे या सचिन के नीचे रख दे तो अतिचार लगता है । दान देने के इच्छुक श्रावक का कर्त्तव्य है कि साधु के निमित्त अचित्त वस्तु को सचित्त से अलग न करे, किन्तु गृह कार्य के लिए सहज ही वह अलग रक्खी गई हो तो साधु को न देने के इरादे से उसे सचिन वस्तु के ऊपर या नीचे न रक्खे । (३) कालातिक्रम-दान के समय का अतिक्रमण करना अर्थात् भिक्षा का समय बीत जाने पर साधु को दान देने का आमंत्रण करना अथवा वस्तु का काल बीत जाने पर-बिगड़ी हुई वस्तु देने का विचार करना । (४) परव्यपदेश-स्वयं सूझता होते हुए भी दूसरे को दान देने के लिए कहना; अथवा न देने की भावना से अपनी वस्तु को दूसरे की बतलाना ।* (५) मात्सर्य-मत्सर भाव धारण करना। (१) साधु तो आ ही धमके हैं, इन्हें आहार-पानी नहीं दूंगा तो लोगों के सामने ये मेरी निन्दा करेंगे, ऐसा विचार करके देना । (२) अच्छी वस्तु होते हुए भी न देना और खराब वस्तु देना । (३) मेरे सरीखा दातार कोई नहीं है, इसी कारण साधु बार-बार मेरे घर आते हैं, ऐसा अभिमान करना । (४) साधु या साध्वी मेरे संसार के सम्बन्धी हैं, अतः इन्हें आहार-पानी देना ही चाहिए इस प्रकार सोच कर देना तथा यह बेचारे साधु जैनों के हैं, इन्हें अपन न देंगे तो दूसरा कौन देगा, ऐसी भावना से देना।+ * दानं प्रियवाक्सहितं, ज्ञानमगर्व क्षमान्वितं शौर्यम् । वित्तं त्यागनियुक्त', दुर्लभमेतच्चतुष्टयं लोके ॥ -विष्णुश्रम अर्थात्-प्रिय एवं मधुर वचनों के साथ दान, गर्वरहित ज्ञान, क्षमा से युक्त शूरवीरता और त्याग सहित धन, यह चार बातें मिलना दुर्लभ है । ___ + 'तहारूवं समग वा माहणे वा संजयविरयपडिहयपचक्खायपाकम्म, तस्स हीलित्ता निंदिता, खिमविचा, गरिहित्ता, अवमानिता, अमणुन्नेणं अप्पियकारगेणं असणापाणखाइमसाइभेणं पडिलाभित्ता, से असुहदीहतरं कम्मं पकरेंति । -श्रीभगवतीसूत्र ।

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