Book Title: Jain Tattva Prakash
Author(s): Amolakrushi Maharaj
Publisher: Amol Jain Gyanalaya

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Page 841
________________ * सागारधर्म - श्रावकाचार [ ७६५ करके न बैठे; क्योंकि सचित्त वस्तु का संघट्टा करने वाले से साधु · आहारपानी आदि कुछ भी ग्रहण नहीं करते हैं। गांव में साधु हों या न हों, तो भी भोजन का ग्रास लेने से पहले किंचित् काल ठहर कर द्वार की ओर दृष्टि डाले और सोचे कि कोई साधु-साध्वी पधारें तो उन्हें दान दूं, क्योंकि प्रतिबन्धविहारी साधु कदाचित् अचानक ही आ जाते हैं। अगर साधुसाध्वी दृष्टिगोचर हो जाएँ तो भोजन में कोई जीव-जन्तु न पड़े, इस प्रकार की व्यवस्था करके, साधु के सन्मुख कर यथोचित नमस्कार करे और आदर के साथ भोजनशाला में ले जाकर उलट भाव से आहारदान दान देवे । साधु को १४ प्रकार की वस्तुएँ दी जाती हैं : (१) अशन अर्थात् चौबीस प्रकार के धान्य में से जो धान्य उस समय पकाया हो, तला हो, भूँजा हो और जो उस समय उपस्थित हो । ( २ ) पान- धोवन पानी, उष्ण पानी, तक्र, छ, शर्बत, ईख का रस आदि जो मौजूद हो । (३) खाद्यपकवान, चित्त मेवा, मिठाई आदि । (४) स्वाद्य -- खटाई, सुपारी, लौंग, चूरन आदि । (५) वस्त्र - श्वेत वर्ण वाले सन के, रेशम के या सूत के । (६) प्रतिग्रह - लकड़ी, तूम्बे या मिट्टी के पात्र । (७) कम्बल – ऊन के वस्त्र, कंबल, बनात आदि । (८) पादप्रोञ्छन – रजोहरण ( ओघा), पूँजनी तथा fart के लिए मोटा वस्त्र । यह आठ वस्तुएं दे दी जाने के बाद फिर वापिस नहीं ली जाती हैं, अतएव उन्हें पडिहारी कहते हैं । * (8) पीठ - आहार- पानी रखने के लिए या बैठने के लिए छोटा पाट या चौकी । (१०) फलक - शयन करने का बड़ा पाट और पीठ की तरफ लगाने का पाटिया, (११) शय्या - रहने के लिए मकान । (१२) संस्तारक - वृद्ध, तपस्वी या रोगी साधु को बिछाने के लिए गेहूँ का, शालि का या कोद्रव आदि का घास । (१३) औषध — सोंठ, हरड़, काली मिर्च, श्रचित्त नमक आदि * नींबू के आचार में का नमक, किसी जगह को तपाने के लिए गर्म किया नमक तथा काला नमक, यह चित्त गिना जाता है । चूर्ण बनाने के बाद वर्षा हो गई हो तथा चूर्ण में रस भिद गया हो तो उसमें का नमक भी प्रचित्त हो जाता है ।

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