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* सागारधर्म -श्रावकाचार *
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। इसका असली फल और भी महान् है । एक ही बार पौषधवत का सम्यक् प्रकार से आराधन करने वाला अनन्त भव-भ्रमण से मुक्त होकर थोड़े ही भवों में मोक्ष प्राप्त कर लेता है ।
चक्रवर्त्ती महाराज अपने लौकिक स्वार्थ को सिद्ध करने के लिए द्रव्य तप और द्रव्य पौषध करते हैं; फिर भी वे सिर्फ १३ तेलों के पौषध से षट्खण्ड भरत क्षेत्र के राज्य के अधिपति बन जाते हैं । करोड़ों देव उनकी आज्ञा में चलने लगते हैं। वे नव निधियों और चौदह रत्नों के तथा अन्य महान् ऋद्धि के भोक्ता बन जाते हैं ।
वासुदेव आदि अनेक पुरुषों ने एक ही तेले के पौषधवत से बड़े-बड़े देवों को अपने अधीन बना लिया था और उनसे अनेक कार्य करवाये थे । ऐसी स्थिति में जो भावपौषध करेगा, जो जिन भगवान् की आज्ञा के अनुसार उसका श्राराधन करेगा, उसे जो महान् फल प्राप्त होगा उसका तो कहना ही क्या है ? वास्तव में पौषधवत आत्मिक गुणों का अनन्त लाभ देने वाला है । ऐसा जान कर सच्चे श्रावक को कम से कम छह पौषध एक महीने में अवश्य करने चाहिए । कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष की अष्टमियों में दो पौषध, चतुर्दशी और अमावस्या का बेला करके दोनों दिनों के दो पौषधवत तथा चतुर्दशी और पूर्णिमा का बेला करके दोनों दिनों के दो पौषव्रत, यह छह पौषध प्रत्येक मास में अवश्य करना चाहिए। प्राचीन काल के श्रावक ऐसा करते थे और इस समय के श्रावकों को भी ऐसा करना उचित है । कदाचित् छह पौषध न हो सकें तो चार-दो अष्टमी और दो पक्खियों के दिन ही करें। और कदाचित् चार भी न बन सकें तो पक्खी के दिन प्रति मास दो पौषध तो करने ही चाहिए । अन्य मतावलम्बी भी कहते हैं— गधे की तरह चर किन्तु एकादशी कर ।' अर्थात् महीने के २८ दिन भले ही पेट भर खाया कर किन्तु दो एकादशियों के दिन दो व्रत
अवश्य कर ।
सुज्ञ श्रात्मार्थी श्रावकों का कर्त्तव्य है कि प्रचलित कुरूढ़ियों को त्याग कर सच्चे और शुद्ध पौषधवत को विधि के अनुसार भावपूर्वक श्राराधन