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आचार्य
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(२५) ज्ञानी, वृद्ध, रोगी, तपस्वी और नवदीक्षित मुनि की यथायोग्य सेवा-भक्ति न करना।
(२६) संघ में फूट डालना, झगड़ा कराना । (२७) ज्योतिष-मंत्र आदि पाप-सूत्रों की रचना करना । (२८) देव और मनुष्य संबंधी अप्राप्त सुख-भोग की इच्छा करना । (२६) धर्म करके जो देवता हुए हैं, उनकी निन्दा करना।
(३०) अपने पास देवता न आते हों तो भी यह प्रकट करना कि मेरे पास देव आते हैं।
इन तीस कामों में से किसी भी एक काम को करने वाला महामोहनीय कर्म का बंध करता है, जिससे उस जीव को ७० कोडाकोड़ी सागरोपम तक बोधिवीज सम्यक्त्व की प्राप्ति नहीं होती। श्री दशवैकालिक सूत्र के पाँचवे अध्याय में कहा है:
तवतेणे वयतेणे, रूवतेणे य जे नरे ।
आयारभावतेणे य, कुव्वई देवकिविसं ॥४६॥ अर्थ-दुर्बल देह देखकर कोई पूछे-आप क्या तपस्वी हैं ? तब तपस्वी न होते हुए भी गोलमोल उत्तर दे देना, जैसे कि-'साधु तो तपस्वी होते ही हैं ! ऐसा उत्तर देने वाला तप का चोर कहलाता है।
(२) किसी साधु के श्वेत केश देखकर किसी ने पूछा-आप स्थविर हैं ? तब स्थविर न होने पर भी कह देना-'साधु तो स्थविर ही होते हैं।' ऐसा उत्तर देने वाला वय का चोर कहलाता है।
(३) किसी को रूपवान्-तेजस्वी देखकर किसी ने पूछा-अमुक राजा ने दीक्षा ली थी, सो क्या आप ही हैं ? तब राजा न होने पर भी कहना'साधु तो ऋद्धि छोड़ कर ही दीक्षा लेते हैं । इसे रूप का चोर समझना चाहिए।