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® धर्म प्राप्ति ®
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अर्थात इस जगत् में ऐसी कोई जाति, योनि कुल या स्थान नहीं है जहाँ यह जीव जन्मा और मरा न हो । सारांश यह है कि सभी जातियों में सभी योनियों में, सभी कुलों में और सभी स्थानों में जीव अनन्तवार उत्पन्न हुआ है और मरा है। इस जगत में जितने भी जीव हैं, उन सब के साथ, सभी जीवों के माता-पिता-भाई-बहन-स्त्री-पुत्र आदि-आदि सभी प्रकार के संबंध अनन्त-अनन्त वार हो चुके हैं। किसी भी जीव के साथ एक भी प्रकार का संबंध जोड़ना शेष नहीं रहा है। फिर भी इसे सच्चा सुख प्राप्त नहीं हुआ, वरन् इन संबंधों के कारण इसे और अधिक दुःख की प्राप्ति हुई। अनेक वार इन संबंधों की बदौलत घोर व्यथा भोगनी पड़ती है, शोक विलाप
और हाहाकार करना पड़ता है, यह प्रत्यक्ष-सिद्ध है। इन सांसारिक संबंधों के कारण अगर अखंड सुख की प्राप्ति संभव होती तो रुदन करके दुखी होने का प्रसंग ही क्यों आता ? उत्तराध्ययनसूत्र में कहा है:
माया पिया एहसा भाया, भज्जा पुत्ता य ओरसा।
नालं ते तव ताणाए, लुप्पंतस्स सकम्मुणा ॥ अर्थात्-माता, पिता, पुत्रवधू, भाई, भार्या (पत्नी) और सगे पुत्र आदि संबंधी तेरे लिए त्राणकारी नहीं हैं । जब तू अपने पूर्वोपार्जित कर्मों के उदय से दुख का भागी बनेगा तब ये तेरी सहायता करने में समर्थ नहीं हो सकेंगे। ऐसा जानकर, हे भव्य प्राणियो ! एक मात्र धर्म का ही आश्रय लो। इस संपूर्ण विश्व में अगर कोई हितकारी है तो धर्म ही है । इस एक मात्र शरणभूत
और कल्याणकारी धर्म की प्राप्ति होना बहुत कठिन है । इस लिये कहा गया है-'एगो धम्मो सुदुल्लहो ।' जगत् में उत्तम गिनी जाने वाली सुवर्ण रत्न
आदि वस्तुएँ भी बहुत थोड़ी और दुर्लभ हैं तो इनसे अनन्त गुना अधिक कीमत वाला धर्म सुलभ कैसे हो सकता है ?* कितनी-कितनी कठिनाइयाँ
® Religion what treasures untold, Reside in that heavenly world. More precious than silver and gold,
Or all this earth can afford. अर्थात्-'धर्म' इस शब्द में कैसा अकथनीय खजाना भरा हुआ है ! सोना, चांदी, रस, मोती और पृथ्वी की समस्त मूल्यवान् वस्तुओं से भी धर्म अतिशय मूल्यवान् है।