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ॐ धर्म प्राप्ति 8
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है। मतिज्ञान कारण है और श्रुतज्ञान कार्य है । श्रुतज्ञान से पहले मतिज्ञान नियमपूर्वक होता है । जातिस्मरण ज्ञान मतिज्ञान के चौथे भेद-धारणा में अन्तर्गत है । जातिस्मरण ज्ञान से उत्कृष्ट १०० भव (यदि संज्ञी पंचेन्द्रिय के निरन्तर नौ सौ भव किये हों तो) जाने जा सकते हैं।
(३) अवधिज्ञान-इन्द्रियों की सहायता के बिना ही, मर्यादापूर्वक, रूपी पदार्थों को जानने वाला ज्ञान अवधिज्ञान कहलाता है । अवधिज्ञान का विशेष निरूपण निम्नलिखित आठ द्वारों से समझना चाहिए:
(१) भेदद्वार—अवधिज्ञान दो प्रकार है-(१) भवप्रत्यय और (२) क्षयोपशमप्रत्यय । देवों और नारकों को देवभव तथा नरकभव के निमित्त से जनमते ही होने वाला अवधिज्ञान भवप्रत्यय कहलाता है। तीर्थङ्करों को भी भवप्रत्यय अवधिज्ञान होता है । मनुष्यों और तिर्यचों को तप आदि के कारण जो अवथिज्ञान होता है, उसे क्षयोपशमप्रत्यय या गुणप्रत्यय कहते हैं।
(२) विषयद्वार-अधिज्ञान से सातवें नरक के नारक जघन्य अर्थ गव्यूति और उत्कृष्ट एक गव्य॒ति जानते हैं। छठे नरक के नारक जवन्य एक गव्यूति और उत्कृष्ट १॥ गव्यूति जानते हैं । पाँच नरक वाले जघन्य १॥ गव्यूति और उत्कृष्ट २ गव्यूति जानते हैं। चौथे नरक वाले जघन्य २ गव्यूति और उत्कृष्ट २॥ गव्युति, तीसरे नरक के नारक ज. २॥ गव्यूति उत्कृष्ट ३ गव्यूति, दूसरे नरक के नारक ज० ३ गव्यूति, उ० ३॥ गन्यूति, पहले नरक के नारक ज. ३॥ और उत्कृष्ट ४ गव्यूति तक जानते हैं।
असुरकुमार जाति के देव अवधिज्ञान से जघन्य २५ योजन और उत्कृष्ट असंख्यात द्वीप देखते हैं और शेष नौ निकायों के देव ज० २५ योजन और उ० संख्यार द्वीप-समुद्र देखते हैं।
वाण-व्यन्तर देव ज० २५ योजन और उ• संख्यात द्वीप-समुद्र देखते हैं।
ज्योतिष्क जाति के देव जघन्य और उत्कृष्ट संख्यात द्वीप-समुद्र देखते हैं।
वैमानिक देव ऊपर अपने विमान की ध्वजा तक देखते हैं, तिर्खे पन्योपम की आयु वाले देव संख्यात द्वीप-समुद्र देखते हैं और सागरोपम की