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® जैन-तत्त्व प्रकाश ®
ऐसे लोग अनेक प्रकार की बीमारियों से पीड़ित हो जाते हैं। उनके आगे तरह-तरह की झंझटें खड़ी हो जाती हैं। वे सज्जनों से भी शत्रुता कर लेते हैं । ताश आदि के खेल में जो हार जाता है वह शर्मिन्दा होता है और दुर्ध्यानी बन जाता है। ताश आदि खेलते-खेलते जुमा खेलने की आदत पड़ जाती है । जुआ खेलने की आदत सारी सम्पत्ति, प्रतिष्ठा, कीर्ति आदि पर पानी फेर देती है और कारागार आदि की सजा का भागी बना देती है । इससे सारा जीवन और भविष्य दुःखमय हो जाता है।
ऐसे कुकर्मों में जो समय बर्बाद किया जाता है उसे धर्मोपदेश सुनने में, धार्मिक पुस्तकें पढ़ने में, सेवा या परोपकार के कार्य में लगाया जाय तो कितना अच्छा हो ! इस प्रकार अपने समय का सदुपयोग करने वाला बहुतों का प्यारा बन जाता है, मान-सन्मान प्राप्त करता है, कीर्ति और प्रतिष्ठा का उपार्जन करता है। अतएव फुर्सत का समय बुरे कामों में न व्यय करके सत्कार्यों में व्यय करना ही उचित है।
कोई-कोई अज्ञानी साफ रास्ता छोड़ कर इधर-उधर उबट में चलते हैं और कच्ची मिट्टी, सचित्त पानी, वनस्पति, दीमकों और चींटियों के बिलों को कुचलते हुए चलते हैं। चलते-चलते विना प्रयोजन वृक्षों की डाली, पत्ते, फूल, घास, तिनका आदि तोड़ते जाते हैं। हाथ में छड़ी हुई तो चलते रास्ते वृक्ष को, गाय को या कुत्ता आदि को मारते चलते हैं । अच्छी जगह छोड़ कर मिट्टी के रे पर, अनाज की राशि पर, धान्य के थैलों पर अथवा हरी घास आदि पर बैठ जाते हैं। दूध, दही, घी, तेल, छाछ, पानी आदि के बर्तनों को विना ढंके छोड़ देते हैं । खांडने, पीसने, लीपने, रांधने, धोने श्रादि कामों के लिए ऊखल, मूसल, खलवट्टा, चक्की, चून्हा, वस्त्र, बर्तन आदि को विना देखे-भाले ही काम में ले आते हैं। ऐसा करने से भी बहुत वार त्रस जीवों की हिंसा हो जाती है। इस प्रकार के सभी कार्य प्रमादापरित समझने चाहिए। इनका सेवन करने से लाभ तो कुछ भी नहीं होता है और हिंसा आदि पापों का आचरण होने से घोर कर्मों का बंध हो जाता