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* जैन-तत्व प्रकाश ®
सकते हैं, किन्तु गृहस्थ का सामायिकव्रत स्वल्पकाल का होने से वे सामायिक में खान-पान, शयन आदि नहीं कर सकते ।
सामायिक का फल
दिवसे दिवसे लक्खं,देह सुवएणस्स खंडियं एगो। इयरो पुण सामाइयं, न पहुप्पहो तस्स कोइ ॥
-सम्बोधसत्तरी, अर्थात्-बीस मन की एक खंडी होती है । ऐसी लाख-लाख खंडी सुवर्ण, लाख वर्ष पर्यन्त प्रतिदिन कोई दान दे और दुसरा एक सामायिक करले । तो इतना सुवर्ण दान देने वाले का पुण्य एक सामायिक के बराबर नहीं हो सकता।* क्योंकि दान से पुण्य की वृद्धि होती है और पुण्य की वृद्धि से सुख-सम्पदा की प्राप्ति हो सकती है, किन्तु सामायिक भवभ्रमण से छुड़ा कर मोक्ष का अनन्त सुख प्राप्त कराने वाली है ।
सामाइयं कुणंतो समभावं सावो घडीअ दुर्ग । आउं सुरस्स बंधइ इति अमिताइ पलियाई ॥१॥ बाणवइ कीडोओ, लक्ख गुणसट्ठी सहस्स पणवीसं । • गवसय पणवीसाए, सत्तिय अडभागपलियस्स ॥२॥
-पुण्यप्रमाण । जो श्रावक समभाव से दो घड़ी (४८ मिनिट) की एक ही सामायिक विधिपूर्वक करता है, वह ६२, ५६, २५, ६२५६ (वानवे करोड़, उनसठ लाख, पच्चीस हजार नौ सौ पच्चीस पन्योपम और एक पल्योपम के आठ भागों में से तीन भाग) की देवगति की आयु बाँधता है।
लाख खंडी सोना तणी, लाख वर्ष दे दान । सामायिक तुल्ये नहीं, भाख्यो श्रीभगवान् ।