Book Title: Jain Tattva Prakash
Author(s): Amolakrushi Maharaj
Publisher: Amol Jain Gyanalaya

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Page 829
________________ [७८३ [ ७८३ * सागारधर्म-श्रावकाचार * __ ६--दिवसचरम का प्रत्याख्यान दिवसचरमं+ पच्चक्खामि-असणं पाणं, खाइम, साइमं, अन्नत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, महत्तरागारेणं, सव्वसमाहिवत्तियागारखं वोसिरे। इसके चारों श्रागारों का अर्थ भी पूर्ववत् ही है । १०-गंठि-मुट्ठिसहियं का प्रत्याख्यान गंठिसहियः: पच्चक्खामि--असणं, पाणं, खाइम, साइमं, अन्नत्थ .....र्थ तपस्तप्येत योऽल्पधीः । शोष एव शरीरस्य, न तस्य तपसः फलम् ।। अर्थात्-जो अल्पबुद्धि मनुष्य अपनी पूजा-प्रतिष्ठा के लिए, धन या पुत्र आदि के लिए या ख्याति के लिए तप करता है, वह केवल अपने शरीर को एखाता है, उसे तपस्या का फल प्राप्त नहीं होता। विवेकेन विना यच्च, तनपम्तनुतापकृत् । अज्ञानकटमेवेदं, न भूरिफलदायकम् ।। अर्थात्-विवेक के बिना जो तप किया जाता है उससे सिर्फ शरीर को संताप पहुँ। चता है । वह अज्ञान तप है । उससे अकामनिर्जरा के सिवाय और कुछ विशेष फल नहीं होता है। कायो न केवलमयं परितापनीयो. मिष्ट रसैर्वहुविधैर्न च लालनीयः। चित्तेन्द्रियाणि न चरन्ति यथोत्पथेव, वश्यानिये न च तदाचरितं जिनामाम् ।। अर्थात्-शरीर को न तो अति तपस्या करके परिताप ही पहुँचाना चाहिए और न नाना प्रकार के मधुर रसों से उसका लालन-पालन ही करना चाहिए। जिनेन्द्र भगवान् की आज्ञा है कि जिस तप से चित्त और इन्द्रियाँ उन्मार्ग में न जाएँ, वश में रहे, इसी प्रकार का तप करना चाहिए। + थोडा दिन शेष रहने पर प्रत्याख्यान कर लेना दिवसचरम का प्रत्याख्यान है। रूमाल आदि वस्त्र को तथा चोटी को गांठ लगा कर जब तक उसे खोले नहीं तब तक किसी वस्तु का सेवन न करे, इसे गठिप्रत्याख्यान कहते हैं। जब तक बायें हाथ की मट्टी बंधी रक्खे तब तक खावे, खोलने के बाद न खावे, यह मुट्ठीसहियं का प्रत्याख्यान कहलाता है।

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