Book Title: Jain Tattva Prakash
Author(s): Amolakrushi Maharaj
Publisher: Amol Jain Gyanalaya

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Page 833
________________ * सागारधर्म-श्रावकाचार * [ ७८७ अप्पडिलेहणाए–प्रतिलेखन न करने के कारण। . दुप्पडिलेहणाए-पूरी तरह विधिपूर्वक न देखने के कारण । अप्पमज्जणाए--जीव की शंका होने पर और यह जीव अगर हाथ । से ग्रहण करने योग्य न हो तो पूँजणी या रजोहरण से न पूँजने के कारण। दुप्पमज्जणाए-विधिपूर्वक प्रमार्जन न करने के कारण । अइक्कमे-प्रतिकूल विचार सम्बन्धी पाप । वइक्कमे---प्रतिकूल प्रवृत्ति सम्बन्धी पाप । अइयार-अतिचार--आंशिक रूप से व्रतभंग करने सम्बन्धी पाप । अणायारे--पूर्णतया व्रतभंग सम्बन्धी पाप । जो मे-जो मैंने । देवसिय--दिवस सम्बन्धी। अइयारो--पाप । को-किया हो। तस्स मिच्छा मि दुक्कडं-वह मेरा पाप निष्फल हो। यह पाठ उच्चारण करके फिर उक्त प्रकार से 'इच्छामि पडिक्कमिउं' और 'तस्सुत्तरी' का पाठ कह कर कायोत्सर्म करे । उक्त प्रकार से कायोत्सर्ग पार कर फिर 'लोगस्स' का पाठ उच्चारण करे। इसके पश्चात् यदि वहाँ साधु या साध्वी हों तो उनके मुख से पौषधव्रत को ग्रहण करे, साधु-साध्वी न हों तो वयोवृद्ध व्रती श्रावक से पौषधवत लेवे, कदाचित् श्रावक भी न हों तो स्वयं पूर्व तथा उत्तर दिशा की तरफ मुख करके पंचपरमेष्ठी को वन्दनानमस्कार करके निम्नलिखित पाठ से पोषधवत को अंगीकार करे। “ग्यारहवाँ पौषधव्रत-असणं, पाणं, खाइम, साइमं, चउन्विहंपि श्राहारं पच्चक्खामि; अब पच्चक्खामि, मालावरणगविलेवणं पच्चक्खामि, मणिसुदएवं पच्चक्खामि, सत्थमुसलादिसावज जोगं पच्चक्खामि, जाव

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