Book Title: Jain Tattva Prakash
Author(s): Amolakrushi Maharaj
Publisher: Amol Jain Gyanalaya

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Page 836
________________ ७६० * जैन-तत्त्व प्रकाश * पसारणाए–विना पूजे हाथ-पैर फैलाए हों । छप्पइसंघट्टणाए-यूका आदि को दबाया हो । कुइए-विना यतना बोला हो। कक्कराइए-दांत पीसे हों। छीए–विना यतना छींका हो । जंभाइए-विना यतना जंभाई ली हो । आमोसे-शरीर को विना पूँजे खाज खुजाई हो । ससरक्खामोसे-सचित्त रज वाले विछौने पर पूँजे विना सोया बैठा होऊँ आउलमाउलाए—आकुल-व्याकुल हुआ होऊँ । सुविणवत्तियाए-खराब स्वप्न आया हो । इत्थीविपरियासयाए–स्वप्न में स्त्री-प्रसंग किया हो । दिडिविपरियासयाए-स्वप्न में दृष्टि (बुद्धि) का विपरीत परिणाम हुआ हो। मणविपरियासयाए-स्वप्न में मन की प्रतिकूल प्रवृत्ति हुई हो । पाणभोयणविपरियासयाए- स्वप्न में आहार-पानी भोगा हो । जो मे-जो मैंने राइसिय-रात्रि संबंधी अइयारो को–अतिचार किया हो। तस्स मिच्छा मि दुक्कडं-मेरा वह दुष्कृत मिथ्या हो। इतना कहकर मौन होकर धर्मध्यान करे। सूर्योदय से पहले राइसिय प्रतिक्रमण करे। सूर्योदय होने पर वस्त्रादि की प्रतिलेखना करे । कदाचित् वस्त्र में मृतक जन्तु का कलेवर निकले तो यतना से एकान्त में परठ कर उसका प्रायश्चित्त लेकर शुद्ध हो ।

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