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® जैन-तत्व प्रकाश ®
णाभोगेणं, सहसागारेणं, महत्तरागारेणं, सव्वसमाहिवत्तियागारेणं वोसिरे ।
इसके चारों आगारों का अर्थ भी पहले आ चुका है।
इन दस प्रत्याख्यानों का समावेश दसवें व्रत में ही होता है। दसवाँ व्रत इतना व्यापक है कि इसमें अतिथिसंविभाग व्रत के अतिरिक्त सभी व्रतों का समावेश हो जाता है।
वर्तमान काल में इस व्रत का आचरण करने के दो प्रकार देखे जाते हैं-(१) गुजरात, काठियावाड़ तथा कच्छ आदि प्रदेशों के निवासी श्रावक इस व्रत के पाठ के अनुसार प्रातःकाल से ही धर्मस्थान में पहुँच कर दिशाओं की और उपभोग-परिभोग की मर्यादा करके, सब सचित्त वस्तुओं के सेवन का, स्त्री के संघट्टे का, इत्यादि दयावत में वतलाई हुई मर्यादाओं का पालन करते हैं तथा अन्य के निमित्त बने हुए आहार को प्राप्त करके भोगते हैं। (२) किन्तु मालवा, मेवाड़, मारवाड़ तथा दक्षिण आदि प्रदेशों के श्रावक. उपवास में पानी पिया हो, अफीम खाई हो, तमाखू संघी हो, इस प्रकार व्यसन की वस्तु का सेवन किया हो तो भी, तथा उपवास करने वाला सारे दिन संसार के कार्य करके थोड़ा दिन शेष रहने पर पौषधव्रत करने के लिए धर्मस्थानक में आ गया हो तो वह दसवें व्रत को अंगीकार करने वाला समझाज
दसवें व्रत के पाँच अतिचार
(१) श्रानयनप्रयोग-मर्यादा की हुई भूमि से बाहर की किसी वस्तु को दूसरे से मँगाना।
(२) प्रेष्यप्रयोग-मर्यादा की हुई भूमि से बाहर किसी को भेजना या कोई वस्तु भेजना।