Book Title: Jain Tattva Prakash
Author(s): Amolakrushi Maharaj
Publisher: Amol Jain Gyanalaya

View full book text
Previous | Next

Page 828
________________ ७८२ जैन-तत्व प्रकाश, पाया । सामाजिक परिवार पति भोगेणं, सहसागारेणं, लेवालेवेणं (गिहत्थसंसद्वेणं). उक्खित्त विवगाणं परिठावणियागारेणं), महत्तरागारेणं, सव्यसमाहिवत्तियागारेणं वोसिरे । आयंबिल के आठ आगार हैं, जिनमें से १-२-६-७-८ का अर्थ ऊपर बतलाया जा चुका है। तीसरे का अर्थ है-रूखी रोटी चुपड़ी रोटी पर रखने से घृत का लेप उस पर लग जाय तो आगार । चौथे का अर्थ हैदातार विगय से भरे हाथों से कोई वस्तु दे तो आगार । पाँचवें का अर्थ है-मुड़ आदि सूखी वस्तु आयंबिल की वस्तु पर रख कर उठा ली हो और उसका अंश उसमें लगा रह गया हो वो आगार है । ८-उपवास का प्रत्याख्यान सूरे उग्गये अभत्तं पच्चक्खामि-असणं, पाणं, खाइम, साइमं, अन्नस्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, (परिट्ठावणियागारेणं), महत्तरागारेणं, सव्वसमाहिवत्तियागारेणं वोसिरे। उपवास* के पाँच आगारों का अर्थ पूर्ववत् समझना चाहिए । * उपवास को अभत्तह भी कहते हैं और चउत्थमत्त भी कहते हैं । बेल्ले को छहभत्त (षष्ठभक्त) और तेले को अट्टममत्त (अष्टमभक्त) कहते हैं । इस तरह दो-दो भक्त बढ़ा कर इच्छित उपवासों का प्रत्याख्यान इसी पाठ से कराया जाता है। कषाय-विषया-हारत्यागो यत्र विधीयते । उपवासः स विज्ञेयः शेषं लङ्घनकं विदुः ।। अर्थात्-कषायों का, इन्द्रियों के विषयो का तथा आहार का त्याग करना उपवास कहलाता है । कषाय और विषयों का त्याग न करके सिर्फ आहार का त्याग करना उपवास नहीं-लंघन मात्र है। उपावर्तेत्त पापेभ्यो, वासश्चैव गुणैः सह । उपवासः स विज्ञेयः, सर्वभोगविवर्जितः ॥ अथीत्-उप-पाप से निवृत्त होकर, वास-गुणों में-धर्म में वास करना, श्रात्मा को धर्म में रमण कराना उपवास है। उपवास में सभी प्रकार के भोगोपभोगों का त्याग करना चाहिए।

Loading...

Page Navigation
1 ... 826 827 828 829 830 831 832 833 834 835 836 837 838 839 840 841 842 843 844 845 846 847 848 849 850 851 852 853 854 855 856 857 858 859 860 861 862 863 864 865 866 867 868 869 870 871 872 873 874 875 876 877 878 879 880 881 882 883 884 885 886 887