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जैन-तत्व प्रकाश,
पाया । सामाजिक परिवार पति
भोगेणं, सहसागारेणं, लेवालेवेणं (गिहत्थसंसद्वेणं). उक्खित्त विवगाणं परिठावणियागारेणं), महत्तरागारेणं, सव्यसमाहिवत्तियागारेणं वोसिरे ।
आयंबिल के आठ आगार हैं, जिनमें से १-२-६-७-८ का अर्थ ऊपर बतलाया जा चुका है। तीसरे का अर्थ है-रूखी रोटी चुपड़ी रोटी पर रखने से घृत का लेप उस पर लग जाय तो आगार । चौथे का अर्थ हैदातार विगय से भरे हाथों से कोई वस्तु दे तो आगार । पाँचवें का अर्थ है-मुड़ आदि सूखी वस्तु आयंबिल की वस्तु पर रख कर उठा ली हो और उसका अंश उसमें लगा रह गया हो वो आगार है ।
८-उपवास का प्रत्याख्यान
सूरे उग्गये अभत्तं पच्चक्खामि-असणं, पाणं, खाइम, साइमं, अन्नस्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, (परिट्ठावणियागारेणं), महत्तरागारेणं, सव्वसमाहिवत्तियागारेणं वोसिरे।
उपवास* के पाँच आगारों का अर्थ पूर्ववत् समझना चाहिए ।
* उपवास को अभत्तह भी कहते हैं और चउत्थमत्त भी कहते हैं । बेल्ले को छहभत्त (षष्ठभक्त) और तेले को अट्टममत्त (अष्टमभक्त) कहते हैं । इस तरह दो-दो भक्त बढ़ा कर इच्छित उपवासों का प्रत्याख्यान इसी पाठ से कराया जाता है।
कषाय-विषया-हारत्यागो यत्र विधीयते ।
उपवासः स विज्ञेयः शेषं लङ्घनकं विदुः ।। अर्थात्-कषायों का, इन्द्रियों के विषयो का तथा आहार का त्याग करना उपवास कहलाता है । कषाय और विषयों का त्याग न करके सिर्फ आहार का त्याग करना उपवास नहीं-लंघन मात्र है।
उपावर्तेत्त पापेभ्यो, वासश्चैव गुणैः सह ।
उपवासः स विज्ञेयः, सर्वभोगविवर्जितः ॥ अथीत्-उप-पाप से निवृत्त होकर, वास-गुणों में-धर्म में वास करना, श्रात्मा को धर्म में रमण कराना उपवास है। उपवास में सभी प्रकार के भोगोपभोगों का त्याग करना चाहिए।