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® जैन-तत्त्व प्रकाश ®
जाकर, कोई एक माइल से आगे जाकर, दो करण तीन योग से हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन और परिग्रह-~-इन पाँचों आस्रवों के सेवन का प्रत्याख्यान कर देता है । इसी प्रकार सातवें व्रत में भोगोपभोग के छब्बीस बोलों की जो मर्यादा की है, उस मर्यादा में से आवश्यकतानुसार रख कर तदुपरान्त भोगोपभोग भोगने का परिमाण घड़ी का, पहर का, अहोरात्रि का, पक्ष का या महीना आदि का एक करण तीन योग से किया जाता है।
इस व्रत के आगार-कदाचित् राजा की आज्ञा होने से मर्यादा के वाहर जाना पड़े, देवता या विद्याधर हरण करके मर्यादित क्षेत्र से बाहर ले जाय, उन्माद आदि रोगों से विवश बेभान होकर मर्यादा से बाहर चला जाय, साधु के दर्शनार्थ जाना पड़े तथा मरते जीव को बचाने के लिए जाना पड़े या अन्य किसी बड़े उपकार के लिए जाना पड़े तो व्रत भंग नहीं होता । जहाँ तक बन सके, मर्यादा किये हुए क्षेत्र से बाहर उक्त आगारों के अनुसार जाना पड़े तो वहाँ हिंसा आदि पाँचों आस्रवों का सेवन न करे ।
१७ नियम
दसवें व्रत का सदैव आसानी से आचरण करने के लिए १७ नियमों की योजना की गई है । वे इस प्रकार हैं
(१) सचित्त-सजीव वस्तु की मर्यादा कर लेना-जैसे नमक आदि कच्ची मिट्टी, नल, कुँवा, बावड़ी, तालाब, परिंडा आदि का पानी, चून्हा, सिगड़ी, चिलम, बीड़ी, दीपक आदि अग्नि, पंखा, झूला, बाजा से होने वाले वायुकाय के प्रारम्भ, फल, फूल, भाजी, फली आदि सचित्त बनस्पति तथा कच्चा धान्य, मेवा आदि सजीव वस्तु सेवन की मर्यादा कर लेना ।
(२) द्रव्य-खाने के, पीने के और सूंघने के पदार्थों की मर्यादा करना।