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* सागारधर्म-श्रावकाचार *
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स्मरण रखना चाहिए कि कोई भी काम एकदम नहीं सुधर जाता । विद्या के अध्ययन में कठिनाई देखकर जो पढ़ना छोड़ देता है, जो पहलेपहल अपने खराब अक्षर देखकर लिखना छोड़ देता है, वह मूर्ख और निरक्षर ही रह जाता है । फिर उसके सुवरने की आशा नहीं रहती। किन्तु एक-एक पद पढ़ते-पढ़ते पंडित बन जाता है और एक-एक अक्षर लिखते-लिखते अच्छा लेखक बन जाता है।
जरा निश्चय सामायिक का विचार कीजिए । अगर एक समय मात्र भी चित्त में समभाव की जागृति हो जाती है तो निश्चय सामायिक हो जाती है। तो एक मुहूर्तकाल में क्या एक समय के लिए भी समभाव नहीं आयगा ? उद्योगवान् पुरुष के लिए यह कोई कठिन बात नहीं है । ऐमा समझ कर अधिक से अधिक शुद्ध सामायिक करने का प्रयत्न करना चाहिए।
प्रश्न-दिन भर पापाचरण करके एक- दो सामायिक कर भी ली तो उससे क्या लाभ हुआ?
उत्तर-सैकड़ों हाथ डोरी लोटे के साथ कूप में छोड़ दी और पतंग के साथ आकाश में छोड़ दी, सिर्फ दो अंगुल डोरी हाथ में रह गई । तब कोई सोचे जब सैकड़ों हाथ छोड़ दी तो दो अंगुल रही तो क्या और न रही तो क्या ! ऐसा सोच कर वह उस दो अंगुल डोरी को भी छोड़ दे तो क्या परिणाम होगा? वह लोटा तथा पतंग को गंवा बैठेगा। अगर उस दो अंगुल डोरी को मजबूती से पकड़ रक्खेगा और फिर खींचना प्रारंभ करेगा तो सारी डोरी को, लोटे को और पतंग को प्राप्त कर लेगा । इसी प्रकार अगर सारा दिन पापाचरण में गवा दिया और सिर्फ दो घड़ी का समय सामायिक में लगाया तो भी ऐसा करने वाला कभी रत्नत्रय रूप माल को खींच कर प्राप्त कर सकेगा। ऐसा जान कर सदैव सामायिक अवश्य करना चाहिए।
सामायिकवत संयमधर्म की बानगी है । साधु का संयम जीवनपर्यन्त का होता है अतः वे शास्त्रविधि के अनुसार खानपान, शयन आदि कर