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ॐ सागारधर्म श्रावकाचार
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घटता-घटाता किसी समय पाप से सर्वथा रहित हो जायगा और पुण्य से स्वतः निवृत्त हो कर मोक्ष प्राप्त कर लेगा ।
इसके विपरीत अज्ञानीजन पापकर्म का आचरण करके हर्षित होते हैं । वे पाप-कर्म में लुब्ध होते हैं । इस कारण उन्हें बहुत चिकने कर्मों का बन्ध होता है । जैसे कर्दम का गीला लोंदा भीत से चिपक जाता है और फिर कठिनाई से छूटता है, उसी प्रकार अज्ञानी के कर्म भी बड़ी कठिनाई से छूटते हैं। ज्ञानी जीव नरक - निगोद के दुःख भोगते-भोगते, रो रोकर अपने चिकने कर्मों से छुटकारा पाता है ।
भोगोपभोगों को चाहे लुब्ध होकर भोगो, चाहे रूक्ष भाव से भोगो, सुख तो एक ही सरीखा मिलेगा। रूक्ष भाव से खाने पर भी मिश्री मीठी लगेगी और लुब्धभाव से खाने पर भी वैसी ही लगेगी । फिर लुब्ध बनकर चिकने कर्म क्यों गाँधे जाएँ ? यों व्यर्थ हो महान् दुःख उपार्जन कर लेना विवेकवान् व्यक्तियों के लिए उचित नहीं है ।
चार शिक्षाव्रत
(१) जब कोई हितैषी किसी को रत्न आदि उत्तम और बहुमूल्य पदार्थ सौंपता है तो साथ में यह शिक्षा भी देता है कि इसे सावधानी से सम्भालना, गँवा मत देना आदि । इसी प्रकार पूर्वोक्त पाँच अणुव्रतों और तीन गुणव्रतों की भली-भाँति रक्षा करने के लिए चार शिक्षाव्रतों की शिक्षा दी गई है। चार शिक्षाव्रतों में प्रवृत्ति करने से भूतकाल में लगे दोषों का ज्ञान हो जाता है और भविष्य में सावधान रहने की शिक्षा मिलती है । इसी कारण इन्हें 'शिक्षाव्रत' कहते हैं ।
(२) जैसे शिक्षक, अपने विद्यागुरु की उपासना करके विद्यावान् बनकर संसार में सुखपूर्वक जीवन निर्वाह करता है, उसी प्रकार चार शिक्षावतों में प्रवृत्ति करने वाला श्रावक, पूर्वोक्त आठों व्रतों का वार-बार स्मरण करके