Book Title: Jain Tattva Prakash
Author(s): Amolakrushi Maharaj
Publisher: Amol Jain Gyanalaya

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Page 815
________________ * सागारधर्म - श्रावकाचार [ ७६६ अधिक बोलने से सहज ही सावध वचन निकल जाता है, श्रतएव बिना प्रयोजन बोलना ही उचित नहीं है । अगर प्रयोजन हो और बोलना अनिवार्य हो जाय तो वचन संबंधी दस दोषों से बच कर बोलना चाहिए । दस दोष इस प्रकार हैं: (१) अलीकदोष – झूठ बोलना । (२) सहसा कारदोष - द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की योग्यता का विचार किये बिना ही जो मन में आ जाय सो बोल देना । (३) असाधारणदोष-— शुद्ध श्रद्धा का विनाशक वचन बोलना, अन्यमतावलम्बियों के आडम्बर का बखान करना तथा मिथ्या उपदेश देकर दूसरों को श्रद्धा में गड़बड़ी उत्पन्न करना । (४) निरपेक्षादोष - शास्त्र के दृष्टिकोण का विचार न करके बोलना । परस्पर संगत, विरोधजनक और दूसरों को दुःख उपजाने वाले वाक्य - कहना । (५) संक्षेपदोष – नमस्कार मन्त्र, एवं सामायिक आदि के पाठों का अधूरा उच्चारण करना, जल्दबाजी में परिपूर्ण उच्चारण न करना । (६) क्लेशदोष – मर्मवेधी वचन बोलकर पुराना क्लेश जगाना अथवा नया क्लेश उत्पन्न करना । (७) विकथादोष – देश-देशान्तर की, राजा-राजेश्वरों की, स्त्रियों के भृङ्गार आदि की तथा भोजन-पान सम्बन्धी बातें करना । (c) हास्यदोष - सामायिक में हँसी-ठट्ठा करना, किसी का मजाक उड़ाना, खिसियाना करना । (६) अशुद्धवचनदोष – सामायिक आदि सूत्रपाठ में ह्रस्व की जगह दीर्घ, दीर्घ की जगह ह्रस्व या मात्राएँ कम-ज्यादा बोलना । अशिष्ट और निर्लज्जतापूर्ण गालियाँ बोलना आदि ।

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