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* जैन-तत्व प्रकाश *
(६) निदानदोष --सामायिक करके उसके फल की इच्छा करना । जैसे—इस सामायिक के फलस्वरूप मुझे स्त्री, पुत्र, ऋद्धि, स्वर्ग सुख, आदि की प्राप्ति हो।
(७) संशयदोष-सामायिक के फल में संदेह करना । जैसे-घर का काम छोड़ कर मैं सामायिक करता हूँ, लेकिन सामायिक का कुछ फल होगा या नहीं?
(८) कषायदोष-झगड़ा करके, कषाययुक्त होकर क्रोध से सामायिक करने बैठ जाय; सब लोग घर का काम करें, मैं बड़ा हूँ अतः सामायिक करूँ यों अभिमान करके सामायिक करे; सामायिक करूँगा तो मुझे काम नहीं करना पड़ेगा, इस तरह कपट करके सामायिक करना; सामायिक करूगा तो अमुक सांसारिक लाभ होगा, इस प्रकार लोभ से सामायिक करे।
(6) अविनयदोष-देव, गुरु, धर्म, शास्त्र संबंधी कुविचार करे, पुस्तक माला आदि धर्मोपकरण नीचे रक्खे और आप स्वयं ऊपर बैठे, साधुसाध्वी श्रावें ते मन में विनय भाव न लावे आदि।
(१०) अपमान दोष-दूसरे का अपमान करने के विचार से अकड़ कर, या पीठ देकर बैठे; तथा जैसे हमाल सोचता है कि कब ठिकाने पहुँचूँ
और बोझा उतार फै, उसी प्रकार सामायिक में बैठा-बैठा घड़ी हिलाता रहे, मिनट गिमता रहे, पूर्ण होने से पहले ही सामायिक पारने की सोचता रहे
और पूर्ण होते ही ऐसा भागे जैसे पशु बंधन से छूटते ही भागता है । इस प्रकार अनादर के साथ सामायिक करना ।
सामायिक में मन के द्वारा यह दस दोष लगते हैं । दोष लगाने से लाभ कुछ भी नहीं होता । ऐसा जान कर मन को शुद्ध रख कर धर्मध्यान में मन रमाना चाहिए।
(२) वयदुप्पणिहाणे-(वचोदुष्प्रणिधान)-अर्थात् वचन का अशुभ व्यापार करना । खराब वचन बोलना।