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* जैन-तत्व प्रकाश *
वे अन्य के हाथों न पड़ें। इस प्रकार श्रावक को ऐसे कार्गों में सावधान रहना चाहिए।
(५) उवभोगपरिभोगाइरित्ते (उपभोग-परिभोगातिरिक्त)-अर्थात उपभोग और परिभोग में अति आसक्त बन कर उपभोग-परिभोग के साधन आवश्यकता से अधिक जुटाना । तथा नाटक, चेटक, खेल, तमाशा, स्त्री-पुरुषों के रूप का निरीक्षण करने में, राग-रागिणी और बादित्र सुनने में, अतर-पुष्प आदि की सुगंध संघने में, मनोज्ञ भोजन के उपभोग में, स्त्री-प्रसंग आदि में अत्यन्त आसक्त बनना । 'वाह वाह ! क्या मजा है ?' इत्यादि शब्दों का प्रयोग करना आदि । इस प्रकार भोगोपभोग में आसक्त बनने से जीव तीत्र रस वाले, चिकने और लम्बी स्थिति वाले दुस्सह्य कर्मों का बंध करता है। ऐसा जान कर श्रावक अप्राप्त भोगों की इच्छा मात्र नहीं करता और प्राप्त भोगों में अत्यन्त आसक्त नहीं बनता । लाला रणजीतसिंहली ने बृहदालोयणा में कहा है
समझा शंके पाप से, अनसमझा हर्षन्त । वे लूखे वे चीकने, इस विध कर्म बंधत । समझ सार संसार में, समझा ढाले दोष ।
समझ समझ कर जीवड़े, गये अनन्ते मोक्ष ॥ अर्थात् ज्ञानी पुरुष प्रथम तो पाप-कर्म करते ही नहीं हैं, कदाचित् करने पड़ें तो वे मन ही मन शंकित होते हैं, पाप-कर्म से डरते रहते हैं। इस प्रकार रूक्ष वृत्ति से जो पापकर्म लगते हैं उनमें चिकनापन नहीं होता। जैसे भींत पर रेत की मुट्ठी डाल दी जाय तो वह लगकर उसी समय हट जाती है, उसी प्रकार उनके कर्म भी जप, तप तथा प्रायश्चित्त-पश्चात्ताप करने से छूट जाते हैं। अतएव संसार में मनुष्यजन्म आदि उत्तम सामग्री प्राप्त करने का यही सार है कि समझ (सम्यग्ज्ञान) प्राप्त करके आत्महित किया जाय । जो ज्ञानी होगा वह पुण्य-पाप के फल को यथार्थ रूप से समझेगा और पुण्य को सुखदाता तथा पाप को दुःखदाता समझ लेगा । वह पुण्य की वृद्धि करेगा और पाप से यथासंभव बचने की कोशिश करेगा। वह पाप को