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® जैन-तत्त्व प्रकाश
रामक
गृहस्थ श्रावक साधु के समान पूरी तरह दंड से निवृत्त नहीं हो सकते, क्योंकि प्रयोजनवश उन्हें आरम्भ-समारम्भ करना पड़ता है, तथापि श्रावक इस बात का भली-भाँति ध्यान रखते हैं कि अनिवार्य आवश्यकता से अधिक
आरम्भ न हो । वे उस प्रारम्भ में आसक्त भी नहीं बनते । जो कार्य प्रारम्भ के बिना नहीं होते उन्हें करते हुए भी अनुकम्पा और विवेक के साथ उन्हें यथासम्भव संकुचित करते जाते हैं और अवसर प्राप्त होने पर सर्वथा त्याग कर देने की अभिलाषा रखते हैं । निरर्थक दंड से पूरी तरह बचते हैं । अनर्थदण्ड के मुख्य चार प्रकार हैं:
(१) अपध्यानाचरित-अर्थात् असत्, अशुभ या खोटे विचार करना । जैसे-(१) इष्टकारी स्त्री, पुत्र, स्वजन, मित्र, स्थान, खानपान, वस्त्राभूषण, श्रादि का संयोग मिलने पर आनन्द में मग्न हो जाना और इन सब के वियोग में तथा वर आदि कोई रोग हो जाने पर दुःख मनाना, हाय हाय करना, सिर और छाती पीटना । यह सब आर्तध्यान कहलाता है । (२) हिंसा के काम में मृषावाद के काम में, चोरी के काम में तथा भोगोपभोग के संरक्षण के कार्य में आनन्द मानना, दुश्मनों की धात या हानि होने का विचार करना । यह रोद्रध्यान कहलाता है। यह दोनों ध्यान अपध्यान हैं। श्रावक को ऐसे विचार नहीं करने चाहिए। कदाचित् ऐसे अशुभ विचार उत्पन्न हो जाएँ तो सोचना चाहिए-२ चेतन ! स्वर्गलोक की ऋद्धि और देवों का सुख तू अनन्त बार भोग आया है, नरक की असीम यातनाएँ भी तू ने अनन्त बार भोगी हैं । उनके सामने यह सुख-दुःख तो किसी गणना में ही नहीं हैं। और पापारम्भ के कार्य और विचार से चिकने कर्मों का बन्ध होता है। उन कर्मों का फल भोगते समय बड़ी वेदना होती है। तू नाहक कर्म का बन्ध क्यों करता है ?' इस प्रकार विचार करके समभाव थारण करना चाहिए और खोटे विचार को उत्पन्न होते ही शुभ विचार के द्वारा दबा देना चाहिए।
(२) प्रमादाचरित-प्रमाद करना भी अनर्थदण्ड है। प्रमाद पाँच प्रकार के हैं